हिव श्रावकना नंदनह, बोलसु केई बोल।
अवघड मारगि हीडंतां ए, विणसई धरम नीटोल।।
तिण पुरि निवसे जिण हवए, देवालउ पोसाल।
भूष्यां त्रिस्यां गोरूयहं, छोरू करि न संभाल।।
तिण्हिवार जिण पूज करे, सामायक बे वार।
माय बाप गुरु भक्ति करे, जाणी धरम विचारु।।
कमरबंध हुई जिणि वयणि, ते तउं बोलि म बोलि।
अविके ऊणे मापुले, कुडउं किमइ म तोलि।।
अधिक म लेसि मापुलइं, उच्छं किमइ म देसि।
एकह जीहव कारणिहि, केतां पाप करेसि।।
जिणवर पूठिइं म न वससे, मराखे सिवनी द्रे ठि।
राउलि आगलि म न वससे, बहुअ पाडेसिइं बेठि।।
राषे धरि बि बारणां ए, ऊधत राषे नारि।
ईंधणि कातणि जलबहणि, होइ सछंदाचारि।।
पटकसाल पांचइ तणीय, जयणा भली करावि।
आठमि चउदसि पूनीमिहि, धोयणि गारि वरावि।।
[अणगल जल म न वावरू ए, जोउ तेहनउ व्याप।
आहेडी मांछी तणू ए, एक चलुं ते पाप।।
लोह मीण लष धाहडी य, गली य चरम विचारि।
एह सविनूं विवहरण, निश्चउ करीय निवारि।।
सुइमुहि जेत चांपीइ ए, जीव अनंता जाणि।
कंद्र मूल सवि परहरु ए, धरम म न करइ हाणि।।
रयणी भोजन म न करिसि, बहुय जीव सिंहार।
सो नर निश्चइ नरयफल, होसिइ पाप प्रमाणि।।]
जांत्र जोत्र ऊषल मुशल, अपि म हल हथीयार।
सइ हथि आगि न आपीइ ए, नाच गीत घरवारि।।
पाटा पेढी म न करसे, करसण नइ अधिकारि।
न्याइं रीतिइं विवहरु ए, श्रावक एह आचार।।
वाच म घालिसि कुपुरसह, फूटइ मुहि महसेसि।
बहुरि म आस पिराइंह, बहु ऊधारि म देसि।।
बइद विलासणि दुइडीय, सुइआणीसु संगु।
राषे बहिनर बेटडी य, जिम हुइ शील न भंगु।।
गुरु उपदेसिइ अति घणा ए, कहूं तु लहुं न पार।
एह बोल हीयडइ धरीउ, सकल करे संसार।।
‘सालिभद्रगुरु' संकुलीय, सिविहूं गुर उपदेसि।
पढ़इ गुणइ जे संभलहिं, ताहइ विघ्न टलेसि।।
।।इति बुद्धिरास समाप्त मिति।।
- पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 34)
- संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
- रचनाकार : शालिभद्र सूरि
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
- संस्करण : 1976
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