राग-रंग
raaga-ra.ng
'ततत्तथेइ ततत्तथेइ ततत्तथेइ सु मंडियं।
थथुंगथेइ थथुंगथेइ विराम काम डंडियं॥
सरीगमप्पधत्रिधा धुनं धुनं ति रष्षियं।
भवंति जोति अंग तान अंगु अंगु लष्षियं॥
कला कला सु भेद भेद भेदनं मनं मन।
रणंकि झंकि नूपुर बुलंति जे झनंझनं॥
घमंडि थार घंटिका भवंति भेष लेषयो।
झुटित्त षुत्त के पास पीत साह रेषयो।
जति गतिस्सु तारया कटिस्सु भेद कट्टरी।
कुसंम सार आवधं कुसंम सार उड्ड नट्टरी॥
उप्परंभ भेष रेष सेषरं करक्कसं।
तिरप्पि तिष्ष सिष्षयो सुदेस दक्खिनं दिसं॥
सुरं ति संग गीतने घरंति सासने धुने।
जमाय जोग कट्टरी त्रिबिध्ध नंच संचने॥
उलट्टि पलट्टि नट्टने फिरक्कि चक्कि चाहने।
निरत्तने' निरष्षि जानु बंभ पुत्ति वाहने॥
विसेष देस ध्रुप्पदं पदं वदंन रागयो।
चक्रभेष चक्रवृत्ति वालि ता विसाजयो॥
उरध्ध मुध्ध मंडली अरोह रोह चालिन।
ग्रहंति मुत्ति दुत्तिमा मनुं मराल मालिनं॥
प्रवीण वाणि अध्धरी मुनिंद्र मुद्र कुंडली।
प्रतिष्ष भेष उध्घरउ सु भोमि लो अषंडली॥
तलत्तलस्सुतालिता मृदंग धुक्कने धुने।
अपा अपा भणंति भे अपंति जानि योजने॥
अलष्ष लष्ष लष्षने नयन वयन्न भूषने।
नरे नरे। नारिंद मां स मेस काम सुष्षने॥
नर्तकियों ने नृत्य शुरू किया। उन्होंने ‘ततत्तथेइ-ततत्तथेइ' विधिपूर्वक संपन्न किया। फिर ‘थथंगथेइ-थथुगथेइ' करके विराम को दंडित किया। ‘सा रे गा मा पा धा नी' सुरों को प्रस्तुत किया। तानों के अंग ज्योति बनकर उनके अंग-अंग में दिखाई पड़ने लगे। नृत्य-संगीतादि के भेद-प्रभेद दर्शकों के मन को भेदने लगे। उनके नूपुर रणकार और झंकार करके 'झनझन' बोलने लगे। कमर में बंधी काँसे की घंटियाँ शब्द करने लगीं। उनकी वेष-लेखा भी चक्रावतित होने लगी। उनके लहराते मुक्त केश-पाश श्लाघ्य पीला चक्र निर्मित करते थे। यति, गति, और ताल के भेद वे कटि से कुशलतापूर्वक संपन्न करने लगीं। कामदेव के आयुध के समान कुसुंभी साड़ी पहने हुए वे ओड़-नृत्य करने लगीं। हृदय से भेष-लेखा को लगाकर और शिरोभूषण को कसकर तिरप की क्षिप्र कला प्रदर्शित करती हुई उन्होंने दक्षिण का सुंदर नृत्य दिखाया। स्वरों के साथ गीत प्रस्तुत करने में वे सुरों का अनुशासन मानती थीं और योग की क्रियाएँ प्रदर्शित कर वे त्रिविध नृत्यों का संपादन कर रही थीं। वे उलटे-पलटे नृत्य करती हुई फिरकी की भाँति घूमकर चकित दृष्टि से देखती थीं। नर्त्तन में निरत वे ऐसी दीखती थीं मानो सरस्वती का वाहन मोर हों। विशेष देशों के तथा ध्रुपद रागों को गाती हुई वे युवतियाँ चक्रवाक का वेष और चक्रवाक की वृत्ति विशेष रूप से साज रही थीं। वह मुग्धा मंडली ऊर्ध्व आरोह में चलकर जब अवरोह में पहुँचती थीं, तो ऐसी लगती थी मानो मराल-माला मुक्ता-माला चुग रही हो। वह वीणा की वाणी का आधार लेती हुई जब मुनींद्रों की मुद्रा और कुंडली का प्रदर्शन करती थी तो ऐसा लगता था मानो भूमि पर इन्द्र का वेष प्रत्यक्ष उतरा हो। मृदंग जब ‘तलत्तलत' की ताल युक्त सुंदर ध्वनि कर रहा था, 'अपा-अपा' कहती हुई वे ऐसी लग रही थीं मानो वे आत्म-योग में लग रही हों। अलक्ष्य और लक्ष्य लक्षणों तथा नयन, वचन और आभूषणों से वे नर और नरेंद्र में काम-सुख का उन्मेष कर रही थीं।
- पुस्तक : पृथ्वीराज रासउ (पृष्ठ 131)
- रचनाकार : चंदबरदाई
- प्रकाशन : साहित्य-सदन चिरगाँव (झाँसी)
- संस्करण : 1963
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