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कृपाराम

हिंदी-काव्यशास्त्र के पहले रचनाकार के रूप में समादृत। सरस, भावपूर्ण और परिमार्जित भाषा के लिए स्मरणीय।

हिंदी-काव्यशास्त्र के पहले रचनाकार के रूप में समादृत। सरस, भावपूर्ण और परिमार्जित भाषा के लिए स्मरणीय।

कृपाराम का परिचय

कृपाराम को हिंदी काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य होने का गौरव प्राप्त है। ये हिंदी भाषा के प्रथम नायिका भेद विषयक ग्रन्थ ‘हिततरंगिणी’ के रचनाकार हैं। यह हिन्दी काव्यशास्त्र का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल 1541 ई. है। इनके जीवन वृतान्त से संबंधित सामग्री अप्राप्य है। लेकिन ‘हिततरंगिणी’ के आधार पर इनका समय सोलहवीं शताब्दी के बीच में निर्धारित किया जा सकता है। हालाँकि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस ग्रन्थ की परिष्कृत भाषा के आधार पर इसके इतने प्राचीन होने में संदेह प्रकट किया है, परंतु नगेन्द्र ने ग्रंथ में दी हुई रचनातिथि के उल्लेख के आधार पर इसकी प्रामाणिकता को स्वीकार किया है।

'हिततरंगिणी' की परिमार्जित भाषा और कुछ दोहों का भाव बिहारी के दोहों से मिलते-जुलते हैं। इन दोहों के संबंध में रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में यह लिखा है कि “या तो बिहारी ने उन दोहों को जान-बूझकर लिया अथवा वे दोहे पीछे से मिल गये।” हालाँकि रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकाल पर विचार करते हुए चिंतामणि त्रिपाठी (1643 ई.) से रीति परंपरा का आरंभ माना है, किंतु ‘हिततरंगिणी’ में इसके रचनाकाल (1541 ई.) के साथ-साथ इस बात का भी उल्लेख है कि इससे पहले भी इस तरह के ग्रंथ लिखे जा रहे थे—

“बरनत कवि सिंगार रस, छंद बड़े विस्तारि
मैं बरन्यो दोहानि बिच यातें सुघर बिचारि।“

नायिका-भेद का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ होते हुए भी 'हिततरंगिणी' में इस विषय का विवेचन बड़े विस्तार से किया गया है। इसके लक्षण एवं उदाहरण प्रायः स्पष्ट हैं। कवि ने इसका आधार भरत का 'नाटयशास्त्र' और भानुदत्त की 'रसमंजरी' को माना है।

इस ग्रंथ की मौलिकता यह है कि इसमें नायिकाओं के मौलिक भेदोपभेदों का भी समावेश किया है। इनमें प्रौढ़ा के दो भेद ‘रतिप्रिया’ और ‘आनंदमत्ता’, स्वकीया के ‘ज्येष्ठा’ और ‘कनिष्ठा’ और ‘समहिता’ नामक एक नया भेद, उढ़ा के ‘परप्रिया’ और ‘परविवाहिता’, और लक्षिता के तीन भेदों ‘क्रियालक्षिता’, ‘वचनलक्षिता’, और ‘प्रत्यक्षलक्षिता’ आदि की चर्चा की जा सकती है। इस ग्रंथ की रचना दोहा छंद और परिमार्जित ब्रजभाषा में हुई है।

बिहारी की 'सतसई’ के साथ इन दोहों का सामंजस्य होना इस बात का प्रमाण है कि सरसता और काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से यह ग्रंथ 'सतसई' के के लगभग समकक्ष ही हैं। आचार्य शुक्ल ने साहित्येतिहास के ग्रंथ में लिखा है कि “‘हिततरंगिणी’ के दोहे बहुत ही सरस, भावपूर्ण तथा परिमार्जित भाषा में हैं।” हिन्दी काव्य-शास्त्र के प्रथम उपलब्ध ग्रंथ के आधार पर और चयनित वर्ण्य-विषय के आधार पर कृपाराम रचित 'हिततरंगिणी' का महत्त्व निर्विवाद है।

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