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पांडे! हरि बिचि अंतर डाढ़ा

panDe! hari bichi antar DaDha

रैदास

रैदास

पांडे! हरि बिचि अंतर डाढ़ा

रैदास

और अधिकरैदास

    पांडे! हरि बिचि अंतर डाढ़ा।

    मुंड मुडावै सेवा पूजा, भ्रम का बंधण गाढ़ा॥टेक॥

    माला तिलक मनोहर बानौ, लागौ जम की पासी।

    जौ हरि सेती जोड़या चाहौ तौ जग सों रहौ उदासी॥

    भूष भाजै त्रिस्ना जाई, कहौ कौन कवन गुण होई।

    जौ दधि में कांजी को जावंण, तौ घ्रित काढ़ै कोई॥

    कहणी कबनी ग्यांन अचारा, भगति इन्हूं सौ न्यारी।

    दोइ घोड़ा चढ़ि कौउ पहुँचौ, सतगुर कहै पुकारी॥

    जो दासा तण कीयौ चाहौ, आस भगति की होई।

    तौ निरमल सांग मगन ह्वै नाचौ, लाज सरम सब खोई॥

    कोई दाधौ कोई सीधौ, सांचौ कूड़ निति मारया।

    कहै रैदास हौं कहत हौं, येकादसह पुकारया॥

    हे पंडित! तुम परमात्मा से बहुत दूर हो। तुम अपने सिर को मुंडवाकर और सेवा−पूजा का स्वाँग करके भ्रम फैला रहे हो और स्वयं भ्रम के दृढ़ बंधन में बँधे हुए हो। माला, तिलक और आकर्षक वेशभूषा; ये बाह्याचार तो यम के फंदे के समान है। वास्तव में तुम ईश्वर का साथ चाहते हो तो संसार से विरक्त रहो। ना तुम बाह्याचार त्याग सकते हो और ना तुम्हारी तृष्णा मरती है, भला तुम प्रभु−भक्ति का गुण कैसे पाओगे? स्मरण रक्खो कि फटे दूध में दही का जामन लागकर कोई घी नहीं पा सकता। कथा−कहानी कहने और ज्ञान−चर्चा करना भक्ति नहीं है। भक्ति का स्वरूप पृथक है। सद्गुरु कहते हैं कि बाह्याडंबर और ध्यान रूपी दो घोड़ों पर चढ़कर कोई भक्ति तक नहीं पहुँच पाया। यदि तुम अपने शरीर को तृण के समान नश्वर समझते हो तो वहाँ भक्ति का सुयोग तुम्हें मिल सकता है।तन-मन से निर्मल हो सामाजिक लाज खोकर प्रभु−भक्ति में मग्न होकर नृत्य करो। सच्चे−सीधे भक्तों को कुछ कुटिल लोग सताते हैं और पीड़ा पहुँचाते हैं किंतु वे इसकी चिंता नहीं करते। रैदास कहते हैं−यह बात मैं अकेला ही नहीं कहता, मेरे अन्य ग्यारह साथी भी यही कहते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रैदास ग्रंथावली (पृष्ठ 353)
    • रचनाकार : डॉ. जगदीश शरण
    • प्रकाशन : साहित्य संस्थान
    • संस्करण : 2011

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