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बारहमासा

barahmasa

धरनीदास

धरनीदास

बारहमासा

धरनीदास

और अधिकधरनीदास

    चैत चलहु मन मानि कै, जहँ बसै प्रान पियार।

    हिलि मिलि पाँच सहेलरी, पंच-पाँच परिवार॥

    परिवारि जोरि बटोरि लीजै गोरि खोरि लाइये।

    बहुरि समय सरूप अस ना जानिये कब पाइये॥

    बैसाखहिं बनि ठनि धनी, साजहु सहज सिंगार।

    पहिरो प्रेम पटंबारो, सुनि लो मंत्र हमार॥

    सुनि लेहु मंत्र हमार सुंदरि हार पहिरु एकावरी।

    छोड़ि मान गुमान ममता अजहुँ समझहु बावरी॥

    जेठ जतन करु कामिनी, जन्म अकारथ जाय।

    जोबन गरब भुलाहु जनि, कछु करि लेहु उपाय॥

    करि लेहु कछुक उपाय नहिं दुख पाय फिर पछिताइ है।

    जब गाँठि को गथ नाटि है तब ढूँढ़ते नहिं पाइ है॥

    अजहुँ असाढ़ समुझि चित, यहि दिसि हित नहिं कोय।

    अद्भुत अरथ दरब सब, सुपन अपन नहिं होय॥

    अपन नहिं कछु सुपन सब सुख, अंत चलिहौ हारिकै।

    मातु पितु परिवार पुनि तोहिं, डारि हें परिचारि कै॥

    सावन सकुच करहु जनि, धावन पठवहु चोख।

    बहुत दिवस लगि भटकियो, अब जनि लावहु धोख॥

    जनि धोख लावहु चोख धावहु, जो कहावहु पीव की।

    करत कोटि उपाव चिंता, मेटि है नहिं जीव की॥

    भामिनि भइल जोबन तन, भजि लेहु भादौं मास।

    पत रहहि निजु पती बिनु, ह्वै है जग उपहांस॥

    होइ है उपहांस जग में, मान मानन जनि करो।

    समुझि नेह सनेह स्वामी, हरखि लै हरिदै धरो॥

    आसुन बिरह बिलासिनी, मिलहु कपट पट खोल।

    नाहि तौं कंत रिसाइ हैं, मुख हूँ नाहीं बोल॥

    मुख बोलि नहिं कछु आइ है, भरमाई है घर घर घरे।

    तब कहा कूप खनाइ हौ, जब आगि छप्पर पर परे॥

    कातिक कुसल तबहिं सखी, जबहिं भजो पिय जानि।

    बहुरि बिछोह कबहुँ नहीं, ह्वैहौ जुग जुग रानि॥

    जुग रानि ह्वैहौ जानि जिय धरि, दानि कोइ दूसरो।

    हित सारि खेत बिसारि अपनी, बीज डारत ऊसरो॥

    अगहन उत्तर दिये सखि, हम अबला अवतार।

    जतन करत ना बनत कछु, कठिन कुटिल संसार॥

    कुटिल यह संसार, बरु जरि जाइ जोबन ऐसहीं।

    निज कंत जो अपनाइ हैं, चलि आइ हैं घर वैसहीं॥

    पूस पलटि प्रभु आयहु, प्रगटेव परम अनंद।

    घर घर सगर नगर सुखी, मिटेव दुसह दुख दुंद॥

    दुख दुंद मेटेव चंद भेंटेव, फंद सबन छुटाइया।

    पुलकि बारंबार ह्वै, परिवार मंगल गाइया॥

    माघ मुदित मन छिनहिं छिन, दिन दिन बढ़त सोहाग।

    नैहर भरम भटकि गयो, सासुर संक लाग॥

    नहिं लागु सासुर संक हे सखि, रंक जनु राजा भयो।

    निज नाह मिलियो बाँह ग्रिव दै, सकल कलमख दुरि गयो॥

    फागुन फर्यो अमी फल, भर्यो सकल दुख पात।

    निसु दिन रहत मगन मन, सो मुख कह्यो जात॥

    कहि जात नहिं मुख ताहि मूरति, सुरति जहँ ठहराइया।

    सुनि बिमल बारह मास को, गुन दास धरनी गाइया॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : धरनीदासजी की बानी (पृष्ठ 48)
    • रचनाकार : धरनीदास
    • प्रकाशन : बेलवेडियर प्रेस
    • संस्करण : 1931

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