रूपरसिक मोहन मनोज मन-हरन सकल गुन-गरबीले।
छैलछबीले, चपल लोचन-चकोर चित्त-चटकीले॥
रतन-जटित सिर मुकुट लटक रहि, सिमट स्याम लट घुंघरारी।
बालबिहारी, कन्हैयालाल, चतुर तेरी बलिहारी॥
लोलक मोती काम कपोलनि झलक बनी निर्मल प्यारी।
जोति उज्यारी, हमैं हरबार दरस दै गिरिधारी॥
बिज्जु-घटासी दंत छटा मुख देखि सरद-ससि सरमीले।
छैलछबीले, चपल लोचन-चकोर चित्त-चटकीले॥
झँगुली झीन जरीपट कछनी, स्यामल गात सुहात भले।
चाल निराली, चरन कोमल पंकज के पात भले॥
पग-नूपुर-झनकार, परम उत्तम जसुमति के तात भले।
संग सखन के, निकट जमुन-तट गोबछरान चरात भले॥
ब्रजजुवतिन के प्रेम-भोग में घर-घर माखन-गटकीले।
छैलछबीले, चपल लोचन-चकोर चित्त-चटकीले॥
गावैं बागबिलास, चरित हरि सरद-रैन रसरास करैं।
मुनिजन मोहैं, कृष्ण-कंसादिक-खल-दल नास करैं॥
गिरिधारी महाराज सदा श्रीब्रज बृंदावन-वास करैं।
हरि-चरित्र को, स्रवन सुनि-सुनि करि मन अभिलाष करैं॥
हाथ जोरकै करैं बीनती 'नारायण' दिल-दरदीले।
छैलछबीले, चपल लोचन-चकोर चित्त-चटकीले॥
- पुस्तक : ब्रजमाधुरी सार (पृष्ठ 264)
- संपादक : वियोगी हरि
- रचनाकार : नारायणस्वामी
- प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
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