अविगतनाथ निरंजन देव
awigatnath niranjan dew
अविगतनाथ निरंजन देव, मैं का जानू तुम्हारी सेवा॥टेक॥
बांधूं न बंधन छाडूं न छाया, तुम्ह ही सेऊं निरंजन राया।
चरन पतारि सीस असमांनां, सो ठाकुर कैसे संपटि समांनां॥
सिव सनकादिक अंत न पाया, खोजत ब्रह्मा जनम गंवाया।
तोरौ न पाती पूजौं न देवा, सहज समाधि करौं हरि सेवा॥
नष प्रसेद जाकै सुरसरी धारा, रोमावली अठारह भारा।
चारि बेद जाकै सुम्रिति स्वांसा, भगति हेत गावै रैदासा॥
हे अविगत निरंजन परमात्मा! मैं तुम्हारी सेवा क्या समझूँ? मैं भले ही तुम्हें बंधन में न बाँधू किंतु मैं आपकी छाया को नहीं छोड़ सकता। मैं तुम्हारी ही सेवा करता रहूँगा। जिसके चरण पाताल और शीश आसमान में है, भला वह परमात्मा एक अंजुलि में कैसे समा सकता है? शिव, सनकादिक ने जिसका अंत नहीं पाया और ब्रह्मा ने जिन्हें खोजते हुए कई जन्म गँवाए, मैं उस प्रभु की सगुण मानकर फूल−पत्रादि से पूजा नहीं करूँगा बल्कि सहज समाधि के द्वारा ही वह सेव्य है। जिसके पैर के नाख़ून के पसीने मात्र से गंगा प्रवाहित हो गई थी, जिसकी रोमावली में अठारह भार की सिद्धियाँ मौजूद हैं और जिसके श्वास में चारों वेदों और स्मृतियों का ज्ञान समाहित है, रैदास कहते हैं कि मैं उसी प्रभु की भक्ति के लिए उसका स्मरण करता हूँ।
- पुस्तक : रैदास ग्रंथावली (पृष्ठ 238)
- रचनाकार : डॉ. जगदीश शरण
- प्रकाशन : साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2011
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