माधव हमर रतल दुर देस
madhaw hamar ratal dur des
माधव हमर रतल दुर देस।
केओ न कहइ सखि कुसल सनेस॥
जुग जुग जीबथु बसथु लाख कोस।
हमर अभाग हुनक नहिं दोस।
हमर करम भेल विहि विपरीति।
तेजलनि माधब पुरुबिल पिरीति॥
हृदयक बेदन बान समान!
आनक दुःख आन नहिं जान॥
भनइ बिद्यापति कवि जयराम।
दैव लिखल परिनत फल बाम॥
मेरे प्रियतम कृष्ण दूर देश में जाकर किसी अन्य रमणी में अनुरक्त हो गए हैं। हे सखि! कोई उनकी कुशलता का समाचार भी नहीं बतलाता। वे युग-युग जिएँ,चाहें वे मुझसे लाखों कोस की दूरी पर ही क्यों न निवास करें। वे जो मुझसे इतने विमुख हो गए हैं वह मेरे ही दुर्भाग्य का आयोजन है, इसमें उनका कोई भी दोष नहीं। मेरे स्वयं के कर्मों से ही विधाता मेरे प्रतिकूल हो गया है और कृष्ण ने पहली जैसी प्रीति को छोड़ दिया है। अब तो हृदय की पीड़ा बाण के समान चुभ रही है, दूसरे की पीड़ा को कोई दूसरा नहीं जान सकता। विद्यापति कहते हैं कि राधा कहती है कि (एक पत्नी-व्रती) राम की जय हो। विधाता द्वारा लिखा हुआ प्रतिकूल-फल ही अपनी अंतिम परिणिति को प्राप्त हो गया है।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 311)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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