दरसनु देखत हीयौ सिराइ
darasanu dekhat hiyau sirai
दरसनु देखत हीयौ सिराइ।
होइ परम आनंदु अंतरगत, अरु मम नयन जुगलु सहताइ।
सहज सकल संताप हरे तन, भव-भव पाप पराछित जाइ॥
दारुन दुसह-दुसह दुख नासइ, सुख-सुख रासि हृदै समाइ।
श्री हरि धृति कीरति मति विजया, सो ति तुष्टि ए होइ सहाइ॥
सकल विघन उपसमहि निरंतर, चोर मारि रिपु प्रमुख सुआइ।
रूपचंद प्रसन्न परिनामनि, अशुभ करम निरजरहि न काइ॥
- पुस्तक : हिंदी पद संग्रह (पृष्ठ 25)
- संपादक : कस्तूरचंद कासलीवाल
- रचनाकार : रूपचंद
- प्रकाशन : गैंदीलाल साह जयपुर
- संस्करण : 1965
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