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अंत नी होय कोई आपणो

ant ni hoy koi aapno

ब्रह्मगीर

ब्रह्मगीर

अंत नी होय कोई आपणो

ब्रह्मगीर

और अधिकब्रह्मगीर

    अंत नी होय कोई आपणो।

    समझी लेओ रे मना भाई, अंत नी होय कोई आपणो॥

    आप निरंजन निरगुणा, सगुण तट ठाड़ा।

    यही रे माया के फंद में, नर आण लुभाणा॥

    कोट कठिन गढ़ चढ़णा, दूर है रे पयाला।

    घड़ियाल बाजत पहेर का, दूर देश को जाणां॥

    कलजुग का है रैहणा, कोई सी भेद नी कैहणा।

    झिलमिल-झिलमिल देखना, मुख से शब्द को जपना॥

    भव सागर को तैर के, किस विधि पार उतरणा।

    नाव बणी केवट नाहीं, अटकी रह्यो रे निदाना॥

    घुरत नगारा सुन्न में, बाजे अनहद तूरा।

    तकिया है चौगान में, पहुँचे बिरला सूरा॥

    माया के भ्रम नहीं भूलणा, ठगी जासे निदाना।

    ब्रह्मगीर कहते भये, पहिचाणो ठिकाणा॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : संत सिंगाजी एक अध्ययन (पृष्ठ 138)
    • संपादक : रामनारायण उपाध्याय
    • रचनाकार : ब्रह्मगीर
    • प्रकाशन : साहित्य-कुटीर
    • संस्करण : 1965

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