ऐसो बसंत नहीं बारबार
aiso basa.nt nahii.n baarabaar
ऐसो बसंत नहीं बारबार। ते पाई मनशा देहीसार॥
यह औसर वृथा न खोव। भक्ति बीज हिय घरती बोव॥
सतसंगति को सींच नीरा। सतगुरुजी सू करो सीर॥
नीकी वार विचार देव। मरन राख याको जु सेव॥
रखवारी करिहेत हेत। जब तेरी होवै जैत जैत॥
खोट कपट पक्षी उड़ाव। मोह घास सबहीनलाव॥
सँभलै बाडी नौऊ अंग। प्रेम फूल फूले रंग॥
पुहुप गूंडिमाला बनाव। आदि पुरुष को जा चढाव॥
हो सहजो बाई चरणदास। तेरे मन की पुजवे सकल आश॥
सहजो बाई कहती है कि ऐसा वसंत बार-बार नहीं आएगा। तुम्हें मनुष्य की देह मिली है, यह शुभ अवसर है इसे मत खो। अपने हृदय रूपी खेत में भक्ति का बीज बो। सतसंगति के जल से उसे सींच और सतगुरु को अपना साझीदार बना। अपने मन में परमात्मा का बार-बार सुमिरन करो क्योंकि इनका जो सुमिरन करता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। अपने हृदय रूपी खेत में लगी फसल की प्रेम से रखवाली करोगे तभी तुम्हारी फसल लहलहाएगी। इस मन रूपी बाड़ी में उड़-उड़कर आने वाले खोट और कपट रूपी पक्षियों को उड़ाओ अर्थात अपने मन में बुरे भाव न आने दो और मोह की घास (खरपतवार) मत पनपने दो। मन रूपी बाड़ी सब तरह से खिल गई तो इसमें प्रेम-पुष्प खिलेंगे। यानी मन के सारे दुर्भाव समाप्त हो जाएंगे और प्रेम का भाव उत्पन्न होगा। उन पुष्प-गुच्छों की माला बनाकर आदि पुरुष के चरणों में चढ़ाना अर्थात अपने मन के सात्विक भावों से परमात्मा के शरणागत हो जाना। चरणदास की शिष्या सहजो कहती है कि ऐसा करने से तुम्हारे मन की संपूर्ण कामनाएँ पूर्ण होगी।
- पुस्तक : सहजप्रकाश (पृष्ठ 95)
- रचनाकार : सहजोबाई
- प्रकाशन : श्रीवेंकटेश्वर स्टीम् प्रेस, बंबई
- संस्करण : 1922
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