गुर कीजै गहिला निगुरा न रहिला।
गुर बिन ग्यांन न पायला रे भाइला॥
दूधै धोया कोइला उजला न होइला।
कागा कंठै पहुप माल हंसला न भइला॥
आभा जैसी रोटली कागा ले जाइला।
पूछौं म्हारा गुरु नै कहां बैसि खाइला॥
उतर दिसि आविला पछिम दिस जाइला।
पूछौ म्हारा सतगुरु नै तिहां बैसि खाइला॥
चींटी केरा नेत्र मैं गज्येंद्र समाइला।
गावड़ी के मुख में बाघला बिवाइला॥
बारे बरसें बंझ ब्याई हाथ पाँव टूटा।
बदंत गोरखनाथ मछिंद्र ना पूता॥
हे मायाग्रस्त (गहिला) साधक! गुरु तो बनाना चाहिए। गुरुहीन रहना ठीक नहीं। हे भाई! गुरु के बिना तत्तवज्ञान नहीं मिलता। दूध से धोने पर भी कोयला उज्जवल (सफेद) नहीं होता, अर्थात् तीर्थ स्नान (दूधै) करने से मन (कोयला) शुद्ध नहीं होता। कौए के कंठ में फूलों की माला डालने से वह हंस नहीं बन जाता, अर्थात् मन (कागा) को पुराण (पहुप) का उपदेश पढाने से वह तत्वज्ञानी (हंस) नहीं बनता। काल (कागा) शरीर (आभा) को रोटी की तरह ले भागता है, मैंने गुरु जी से पूछा कि वह कहाँ इसे खाता है? हमारे गुरु जी ने समझाया कि वह उत्तर दिशा से आता है और पश्चिम दिशा में जाता है, वहाँ बैठकर खाता है, अर्थात् शब्द/अनहद (उत्तर) में आता है और पवन (परमेश्वर) में जाता है और पश्चिम दिशा में बैठकर खाता है, अर्थात् शब्द/अनहद (उत्तर) में आता है और पवन (परमेश्वर) में जाता है, वहाँ शरीर की मुक्ति होती है। इस प्रकार चींटी के नेत्र में हाथी समा जाता है, अर्थात् चींटी (मनसा/सात्विक बुद्धि) में गजेंद्र (स्थूल मन) लीन हो जाता है। फलस्वरूप गाय के मुख में बाघ उत्पन्न होता है, अर्थात् आत्मा (गावड़ी) को आत्म स्वरूप (बाघ) का ज्ञान होता है। बारह वर्ष में बाँझ ने जन्म दिया, अर्थात् बारह वर्ष में आत्मा को ज्ञान हुआ और माया के हाथ−पाँव टूट गए। मछंदर का पुत्र गोरख यह ज्ञान बता रहा है।
- पुस्तक : श्री गोरख गीत (पृष्ठ 63)
- रचनाकार : गोरखनाथ
- प्रकाशन : laxmi prakashan
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