चेला सब सूता, नाथ सतगुर जागै।
दसवैं द्वारि अवधू मधुकरी मांगै॥
सहजै खपरा सुषमनि डंडा।
पांच संगाती मिलि खेलैं नव खंडा॥
गंग जमन मधि आसण बालौ।
अनहद नाद काल मैं टालौ॥
गगन मंडल मैं रमूँ अकेला।
उरध मुखि बंकनालि अमी रस झेला॥
कथंत गारेखनाथ गुरु उपदेसा।
मिल्यां संत जन टल्या अंदेसा॥
शिष्य सब सोए पड़े हैं, केवल नाथ सगतुरु (ब्रह्म) ही जाग रहा है। इसलिए अवधू दसवें द्वार (ब्रह्मरंध) पर मधुकरी (अमृतरस) माँग रहा है। सहज साधना उसका खपर (कमंडल) है और सुषुम्ना डंडा है। वह पाँचों ज्ञानेद्रियों के साथ शरीर के नौ द्वारों में खेल रहा है। गंगा और यमुना (श्वास और प्रश्वास या चंद्र और सूर्य नाड़ियों) के मध्य वह धूनी जलाए बैठा है। वह आकाश (ब्रह्म स्थान में अकेला रमा है और ऊर्ध्वमुख करके बंकनाल से अमृतरस ले रहा है। गोरखनाथ गुरु का उपदेश बता रहा है कि संतजन मिलने पर भ्रम दूर हो जाता है।
- पुस्तक : श्री गोरख गीत (पृष्ठ 75)
- रचनाकार : गोरखनाथ
- प्रकाशन : laxmi prakashan
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