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पत्रकारिता के विविध आयाम

patrakarita ke vividh ayam

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पत्रकारिता के विविध आयाम

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    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    माध्यम ही संदेश है

    —मार्शल मैकलुहान 

    कनाडा के मशहूर संचारशात्री

     

    एक नज़र में...

    पत्रकारिता का संबंध सूचनाओं को संकलित और संपादित कर आम पाठकों तक पहुँचाने से है। लेकिन हर सूचना समाचार नहीं है। पत्रकार कुछ ही घटनाओं, समस्याओं और विचारों को समाचार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। किसी घटना के समाचार बनने के लिए उसमें नवीनता, जनरुचि, निकटता, प्रभाव जैसे तत्त्वों का होना ज़रूरी है।

    समाचारों के संपादन में तथ्यपरकता, वस्तुपरकता, निष्पक्षता और संतुलन जैसे सिद्धांतों का ध्यान रखना पड़ता है। इन सिद्धांतों का ध्यान रखकर ही पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता अर्जित करती है। लेकिन पत्रकारिता का संबंध केवल समाचारों से ही नहीं है। उसमें संपादकीय, लेख, कार्टून और फ़ोटो भी प्रकाशित होते हैं। पत्रकारिता के कई प्रकार हैं। उनमें खोजपरक पत्रकारिता, वॉचडॉग पत्रकारिता और एडवोकेसी पत्रकारिता प्रमुख हैं।

     

    पत्रकारिता

    अपने रोज़मर्रा के जीवन के एक आम दिन की कल्पना कीजिए। दो लोग आसपास रहते हैं और लगभग रोज़ मिलते हैं। कभी बाज़ार में, कभी राह चलते और कभी एक-दूसरे के घर पर। भेंट से पहले के कुछ मिनट की उनकी बातचीत पर ध्यान दीजिए। हर दिन उनका पहला सवाल क्या होता है? ‘क्या हालचाल है?’ या ‘कैसे हैं?’ या फिर ‘क्या समाचार है?’ रोज़मर्रा के इन सहज प्रश्नों में ऊपरी तौर पर कोई विशेष बात नहीं दिखाई देती। इन प्रश्नों को ध्यान से सुनिए और सोचिए। इसमें आपको एक इच्छा दिखाई देगी। नया और ताज़ा समाचार जानने की। पिछले कुछ घंटे का हाल जानने की। या बीती रात की ख़बरें। कल से आज के बीच या कुछ घंटों के अंतराल में आए बदलाव की जानकारी। यानी हम अपने मित्रों, रिश्तेदारों और सहकर्मियों से हमेशा उनका कुशलक्षेम या उनके आसपास की घटनाओं के बारे में जानना चाहते हैं।

    कहने की ज़रूरत नहीं है कि अपने आसपास की चीज़ों, घटनाओं और लोगों के बारे में ताज़ा जानकारी रखना मनुष्य का सहज स्वभाव है। उसमें जिज्ञासा का भाव बहुत प्रबल होता है। यही जिज्ञासा समाचार और व्यापक अर्थ में पत्रकारिता का मूल तत्त्व है। जिज्ञासा नहीं रहेगी तो समाचार की भी ज़रूरत नहीं रहेगी। पत्रकारिता का विकास इसी सहज जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश के रूप में हुआ। वह आज भी इसी मूल सिद्धांत के आधार पर काम करती है। 

     

    पत्रकारिता क्या है?

    हम सूचनाएँ या समाचार क्यों जानना चाहते हैं? दरअसल, सूचनाएँ अगला क़दम तय करने में हमारी सहायता करती हैं। इसी तरह हम अपने पास-पड़ोस, शहर, राज्य और देश-दुनिया के बारे में जानना चाहते हैं। ये सूचनाएँ हमारे दैनिक जीवन के साथ-साथ पूरे समाज को प्रभावित करती हैं। आज देश-दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उसकी अधिकांश जानकारी हमें समाचार माध्यमों से मिलती है। सच तो यह है कि हमारे प्रत्यक्ष अनुभव से बाहर की दुनिया के बारे में हमें अधिकांश जानकारी समाचार माध्यमों द्वारा दिए जाने वाले समाचारों से ही मिलती है।

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    समाचार

    हम हर दिन समाचारपत्र पढ़ते हैं या टेलीविज़न और रेडियो पर समाचार सुनते हैं या फिर इंटरनेट पर समाचार देखते और पढ़ते हैं। इन विभिन्न समाचार माध्यमों के ज़रिए दुनियाभर के समाचार हमारे घरों में पहुँचते हैं। समाचार संगठनों में काम करने वाले पत्रकार देश-दुनिया में घटने वाली घटनाओं को समाचार के रूप में परिवर्तित करके हम तक पहुँचाते हैं। इसके लिए वे रोज़ सूचनाओं का संकलन करते हैं और उन्हें समाचार के प्रारूप में ढालकर प्रस्तुत करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को ही पत्रकारिता कहते हैं।

    समाचार की कुछ परिभाषाएँ

    • प्रेरक और उत्तेजित कर देने वाली हर सूचना समाचार है।

    • समय पर दी जाने वाली हर सूचना समाचार का रूप धारण कर लेती है।

    • किसी घटना की रिपोर्ट ही समाचार है।

    • समाचार जल्दी में लिखा गया इतिहास है?

     

    समाचार क्या है?

    इतना तो आप जान ही गए होंगे कि हर सूचना समाचार नहीं है यानी हर सूचना समाचार माध्यमों में प्रकाशित या प्रसारित नहीं होती है। ऐसा क्यों हैं? आख़िर हर घटना, समाचार क्यों नहीं है? वह हर बात समाचार क्यों नहीं है जिसके बारे में हमें पहले जानकारी नहीं थी? क्या एक-दूसरे का हालचाल और खोज ख़बर लेना समाचार नहीं है? क्या वह सब समाचार नहीं है जिसके बारे में लोग जानना चाहते हैं या जिसके बारे में लोगों को जानना चाहिए? या फिर समाचार वही है जिसे एक पत्रकार समाचार मानता है? निश्चय ही, मित्रों, रिश्तेदारों और सहकर्मियों से आपसी कुशलक्षेम और हालचाल का आदान-प्रदान समाचार माध्यमों के लिए समाचार नहीं है। इसकी वजह यह है कि आपसी कुशलक्षेम हमारा व्यक्तिगत मामला है। हमारे नज़दीकी लोगों के अलावा अन्य किसी की उसमें दिलचस्पी नहीं होगी।

    दरअसल, समाचार माध्यम कुछ लोगों के लिए नहीं बल्कि अपने हज़ारों-लाखों पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों के लिए काम करते हैं। स्वाभाविक है कि वे समाचार के रूप में उन्हीं घटनाओं, मुद्दों और समस्याओं को चुनते हैं जिन्हें जानने में अधिक से अधिक लोगों की रुचि होती है। यहाँ हमारा आशय उस तरह के समाचारों से है जिनका किसी न किसी रूप में सार्वजनिक महत्त्व होता है। ऐसे समाचार अपने समय के विचार, घटना और समस्याओं के बारे में लिखे जाते हैं। ये समाचार ऐसी सम-सामयिक घटनाओं, समस्याओं और विचारों पर आधारित होते हैं जिन्हें जानने की अधिक से अधिक लोगों में दिलचस्पी होती है और जिनका अधिक से अधिक लोगों के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। 

    इसके बावजूद ऐसा कोई फ़ार्मूला नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जाए कि यह घटना समाचार है और यह नहीं। पत्रकार और समाचार संगठन ही किसी भी समाचार के चयन, आकार और उसकी प्रस्तुति का निर्धारण करते हैं। यही कारण है कि समाचारपत्रों और समाचार चैनलों में समाचारों के चयन और प्रस्तुति में इतना फ़र्क़ दिखाई पड़ता है। एक समाचारपत्र में एक समाचार मुख्य समाचार (लीड स्टोरी) हो सकता है और किसी अन्य समाचारपत्र में वही समाचार भीतर के पृष्ठों पर कहीं एक कॉलम का समाचार हो सकता है। एक टेलीविज़न चैनल के लिए अमिताभ बच्चन के जन्मदिन का समाचार पहला मुख्य समाचार हो सकता है तो संभव है कि कोई अन्य चैनल इराक में युद्ध को या आर्थिक विकास को लेकर दिए गए प्रधानमंत्री के बयान को अपनी मुख्य ख़बर बनाए।

    लेकिन विभिन्नताओं का अर्थ यह नहीं है कि समाचार की कोई परिभाषा ही नहीं है। किसी घटना, समस्या और विचार में कुछ ऐसे तत्त्व होते हैं जिनके होने पर उसके समाचार बनने की संभावना बढ़ जाती है। उन तत्त्वों को लेकर समाचार माध्यमों में एक आम सहमति है। इस चर्चा के उपरांत अब हम समाचार को इस तरह परिभाषित कर सकते हैं—

    समाचार किसी भी ऐसी ताज़ा घटना, विचार या समस्या की रिपोर्ट है जिसमें अधिक से अधिक लोगों की रुचि हो और जिसका अधिक से अधिक लोगों पर प्रभाव पड़ रहा हो।

    दरअसल, समाचार माध्यमों के उपभोक्ता यानी पाठक, दर्शक और श्रोता अपने मूल्यों, रुचियों और दृष्टिकोणों में बहुत विविधताएँ और भिन्नताएँ लिए होते हैं। इन्हीं के अनुरूप उनकी सूचना प्राथमिकताएँ भी निर्धारित होती हैं। परंपरागत पत्रकारिता के मानदंडों के अनुसार समाचार मीडिया को लोगों की सूचनाओं की ज़रूरत और माँग के बीच संतुलन क़ायम करना पड़ता है। कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जिनके बारे में हमें जानकारी होना आवश्यक है और कुछ घटनाएँ ऐसी भी होती हैं जिनके बारे में जानकारी न भी हो तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, अलबत्ता उन्हें पढ़कर या सुनकर या देखकर हमें मज़ा आता है। इन दिनों समाचार माध्यम में मज़ेदार और मनोरंजक समाचारों को प्राथमिकता देने का रुझान प्रबल हुआ है।

     

    समाचार के तत्त्व

    लोग आमतौर पर अनेक काम मिलजुल कर करते हैं। सुख-दुख की घड़ी में वे साथ होते हैं। मेलों और उत्सवों में वे साथ-साथ होते हैं। दुर्घटनाओं और विपदाओं के समय वे साथ होते हैं। इन सबको हम घटनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर लोगों को अनेक छोटी-बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गाँव, क़स्बे या शहर में बिजली पानी के न होने से लेकर बेरोज़गारी, महंगाई और आर्थिक मंदी जैसी समस्याओं से उन्हें जूझना होता है। इसी तरह लोग अपने समय की घटनाओं, रुझानों और प्रक्रियाओं पर सोचते हैं। उन पर विचार करते हैं और इन सब को लेकर कुछ प्रतिक्रिया करते हैं या कर सकते हैं। इस तरह की विचार मंथन की प्रक्रिया के केंद्र में घटनाओं और समस्याओं के कारणों, प्रभाव और परिणामों का संदर्भ भी रहता है। लेकिन कोई घटना, समस्या या विचार कब और कैसे समाचार बनता है? आख़िर वे कौन से कारक हैं जिनके होने पर कोई घटना ख़बर बन जाती है?

    सामान्य तौर पर किसी भी घटना, विचार और समस्या से जब समाज के बड़े तबके का सरोकार हो तो हम यह कह सकते हैं कि यह समाचार बनने के योग्य है। लेकिन किसी घटना, विचार और समस्या के समाचार बनने की संभावना तब बढ़ जाती है, जब उनमें निम्नलिखित में से कुछ अधिकांश या सभी तत्त्व शामिल हों—

    • नवीनता

    • निकटता

    • प्रभाव

    • जनरुचि

    • टकराव या संघर्ष

    • महत्त्वपूर्ण लोग

    • उपयोगी जानकारियाँ

    • अनोखापन

    • पाठक वर्ग

    • नीतिगत ढाँचा

    आइए, अब हम इन तत्त्वों या कारकों पर एक-एक कर विचार करते हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि किसी घटना, समस्या या विचार के समाचार बनने में इनकी भूमिका होती है। कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी।

     

    नवीनता

    किसी भी घटना, विचार या समस्या के समाचार बनने के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि वह नया यानी ताज़ा हो। कहा भी जाता है ‘न्यू’ है इसलिए ‘न्यूज़’ है। घटना जितनी ताज़ा होगी, उसके समाचार बनने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है। तात्पर्य यह है कि समाचार वही है जो ताज़ा घटना के बारे में जानकारी देता है। एक घटना को एक समाचार के रूप में किसी समाचार संगठन में स्थान पाने के लिए, इसका सही समय पर सही स्थान यानी समाचार कक्ष में पहुँचना आवश्यक है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि उसका समयानुकूल होना ज़रूरी है। एक दैनिक समाचारपत्र के लिए आमतौर पर पिछले 24 घंटों की घटनाएँ समाचार होती हैं। एक चौबीस घंटे के टेलीविज़न और रेडियो चैनल के लिए तो समाचार जिस तेज़ी से आते हैं, उसी तेज़ी से बासी भी होते चले जाते हैं। 

    एक दैनिक समाचारपत्र के लिए वे घटनाएँ सामयिक हैं जो कल घटित हुई हैं। आमतौर पर एक दैनिक समाचारपत्र की अपनी एक डेडलाइन (समय-सीमा) होती है जब तक कि समाचारों को वह कवर कर पाता है। मसलन अगर एक प्रातःकालीन दैनिक समाचारपत्र रात 12 बजे तक के समाचार कवर करता है तो अगले दिन के संस्करण के लिए 12 बजे रात से पहले के चौबीस घंटे के समाचार सामयिक होंगे।

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    लेकिन अगर द्वितीय विश्वयुद्ध या ऐसी किसी अन्य ऐतिहासिक घटना के बारे में आज भी कोई नई जानकारी मिलती है जिसके बारे में हमारे पाठकों को पहले जानकारी नहीं थी तो निश्चय ही यह उनके लिए समाचार है। दुनिया के अनेक स्थानों पर बहुत-सी ऐसी चीज़ें होती हैं जो वर्षों से मौजूद हैं लेकिन यह किसी अन्य देश के लिए कोई नई बात हो सकती है और निश्चय ही समाचार बन सकती है।

    कुछ ऐसी घटनाएँ भी होती हैं जो रातोंरात घटित नहीं होती बल्कि जिन्हें घटने में वर्षों लग जाते हैं। मसलन किसी गाँव में पिछले 20 वर्षों में लोगों की जीवनशैली में क्या-क्या परिवर्तन आए और इन परिवर्तनों के क्या कारण थे यह जानकारी निश्चय ही एक समाचार है। लेकिन यह एक ऐसी समाचारीय घटना है, जिसे घटने में बीस वर्ष लगे। स्पष्ट है कि घटना का ताज़ा होना ही ज़रूरी नहीं है। नवीनता के तत्त्व न होने पर भी उसके समाचार बनने की संभावना बढ़ जाती है।

     

    निकटता

    किसी भी समाचार संगठन में किसी समाचार के महत्त्व का मूल्यांकन अर्थात उसे बुलेटिन में शामिल किया जाएगा या नहीं, इसका निर्धारण इस आधार पर भी किया जाता है कि वह घटना उसके कवरेज क्षेत्र और पाठक/दर्शक श्रोता समूह के कितने क़रीब हुई है? हर घटना का समाचारीय महत्त्व काफ़ी हद तक उसकी स्थानीयता से भी निर्धारित होता है। ज़ाहिर है सबसे क़रीब वाला ही सबसे प्रिय भी होता है। यह मानव स्वभाव है। स्वाभाविक है कि लोग उन घटनाओं के बारे में जानने के लिए अधिक उत्सुक होते हैं जो उनके क़रीब होती हैं। लेकिन यह निकटता भौगोलिक नज़दीकी के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक नज़दीकी से भी जुड़ी हुई है। यही कारण है कि हम अपने शहर और आसपास के क्षेत्रों के अलावा अपने राज्य और देश के अंदर क्या हुआ, यह जानने को उत्सुक रहते हैं। हम अपने देशवासियों से सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से जुड़े हुए हैं चाहे वे हमसे सैकड़ों मील दूर बैठे हों।

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    यही नहीं, इस सांस्कृतिक निकटता के कारण हम विदेशों में बसे भारतीयों से जुड़ी घटनाओं को भी जानना चाहते हैं। लेकिन एक जैसी महत्त्व की दो घटनाओं में से स्थानीय समाचारपत्र में उस घटना के ख़बर बनने की संभावना ज़्यादा है जो उसके पाठकों के ज़्यादा क़रीब हुई है। इसका एक कारण तो क़रीब होना है और दूसरा कारण यह भी है कि उसका असर उन पर भी पड़ता है। मसलन किसी एक ख़ास कॉलोनी में चोरी डकैती की घटना के बारे में वहाँ के लोगों की रुचि होना स्वाभाविक है। रुचि इसलिए कि घटना उनके क़रीब हुई है और इसलिए भी कि इसका संबंध स्वयं उनकी अपनी सुरक्षा से है।

     

    प्रभाव

    किसी घटना के प्रभाव से भी उसका समाचारीय महत्त्व निर्धारित होता है। किसी घटना की तीव्रता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उससे कितने सारे लोग प्रभावित हो रहे हैं या कितने बड़े भू-भाग पर उसका असर हो रहा है। किसी घटना से जितने अधिक लोग प्रभावित होंगे, उसके समाचार बनने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है। ज़ाहिर है जिन घटनाओं का पाठकों के जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ रहा हो, उसके बारे में जानने की उनमें स्वाभाविक इच्छा होती है। जैसे सरकार के किसी निर्णय से अगर सिर्फ़ सौ लोगों को लाभ हो रहा हो तो यह उतना बड़ा समाचार नहीं है जितना कि उससे लाभांवित होने वाले लोगों की संख्या अगर एक लाख हो। सरकार अनेक नीतिगत फ़ैसले लेती है जिनका प्रभाव तात्कालिक नहीं होता लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं और इसी दृष्टि से इसके समाचारीय महत्त्व को आँका जाना चाहिए।

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    जनरुचि

    किसी विचार, घटना और समस्या के समाचार बनने के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों की उसमें दिलचस्पी हो। वे उसके बारे में जानना चाहते हों। कोई भी घटना समाचार तभी बन सकती है, जब पाठकों या दर्शकों का एक बड़ा तबका उसके बारे में जानने में रुचि रखता हो। हर समाचार संगठन का अपना एक लक्ष्य समूह (टार्गेट ऑडिएंस) होता है और वह समाचार संगठन अपने पाठकों या श्रोताओं की रुचियों को ध्यान में रखकर समाचारों का चयन करता है। लेकिन हाल के वर्षों में लोगों की रुचियों और प्राथमिकताओं में भी तोड़-मरोड़ की प्रक्रिया काफ़ी तेज़ हुई है और यह भी सच है कि लोगों की रुचियों में परिवर्तन भी आ रहे हैं। कह सकते हैं कि रुचियाँ कोई स्थिर चीज़ नहीं हैं गतिशील हैं। कई बार इनमें परिवर्तन आते हैं तो मीडिया में भी परिवर्तन आता है। लेकिन आज मीडिया लोगों की रुचियों में परिवर्तन लाने में बहुत बड़ी भूमिका अदा कर रहा है।

     

    टकराव या संघर्ष

    किसी घटना में टकराव या संघर्ष का पहलू होने पर उसके समाचार के रूप में चयन की संभावना बढ़ जाती हैं क्योंकि लोगों में टकराव या संघर्ष के बारे में जानने की स्वाभाविक दिलचस्पी होती है। इसकी वजह यह है कि टकराव या संघर्ष का उनके जीवन पर सीधा असर पड़ता है। वे उससे बचना चाहते हैं और इसलिए उसके बारे में जानना चाहते हैं। यही कारण है कि युद्ध और सैनिक टकराव के बारे में जानने की लोगों में सर्वाधिक रुचि होती है। लेकिन टकराव का अर्थ केवल ख़ून-ख़राबा या ख़ूनी संघर्ष ही नहीं है बल्कि खेलों में जब दो टीमें आपस में मुक़ाबला करती हैं या चुनावों में राजनीतिक दलों के बीच राजनीतिक संघर्ष होता है तो उसे भी जानने में लोगों की उतनी ही दिलचस्पी होती है।

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    महत्त्वपूर्ण लोग

    मशहूर और जाने-माने लोगों के बारे में जानने की आम पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं में स्वाभाविक इच्छा होती है। कई बार किसी घटना से जुड़े लोगों के महत्त्वपूर्ण होने के कारण भी उसका समाचारीय महत्त्व बढ़ जाता है। जैसे अगर प्रधानमंत्री को ज़ुकाम भी हो जाए तो यह एक ख़बर होती है। इसी तरह किसी फ़िल्मी सितारे या क्रिकेट खिलाड़ी का विवाह भी ख़बर बन जाती है जबकि यह एक नितांत निजी आयोजन होता है। दरअसल, लोग यह जानना चाहते हैं कि मशहूर लोग उस मुक़ाम तक कैसे पहुँचे, उनका जीवन कैसा होता है और विभिन्न मुद्दों पर उनके क्या विचार हैं। लेकिन कई बार समाचार माध्यम महत्त्वपूर्ण लोगों की ख़बर देने के लोभ में उनके निजी जीवन की सीमाएँ लाँघ जाते हैं। यही नहीं, महत्त्वपूर्ण लोगों के बारे में जानकारी देने के नाम पर कई बार समाचार माध्यम अफ़वाहें और कोरी गप प्रकाशित-प्रसारित करते दिखाई पड़ते हैं।

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    उपयोगी जानकारियाँ

    अनेक ऐसी सूचनाएँ भी समाचार मानी जाती हैं जिनका समाज के किसी विशेष तबके के लिए ख़ास महत्त्व हो सकता है। ये लोगों की तात्कालिक उपयोग की सूचनाएँ भी हो सकती हैं। मसलन स्कूल कब खुलेंगे, किसी ख़ास कॉलोनी में बिजली कब बंद रहेगी, पानी का दबाव कैसा रहेगा, वहाँ का मौसम कैसा रहेगा आदि। ऐसी सूचनाओं का हमारे रोज़मर्रा के जीवन में काफ़ी उपयोग होता है और इसलिए उन्हें जानने में आम लोगों की सहज दिलचस्पी होती है।

     

    अनोखापन

    एक पुरानी कहावत है कि कुत्ता आदमी को काट ले तो वह ख़बर नहीं लेकिन अगर आदमी कुत्ते को काट ले तो वह ख़बर है यानी जो कुछ स्वाभाविक नहीं है या किसी रूप में असाधारण है वही समाचार है।

    निश्चय ही, अनहोनी घटनाएँ समाचार होती हैं। लोग इनके बारे में जानना चाहते हैं। लेकिन समाचार मीडिया को इस तरह की घटनाओं के संदर्भ में काफ़ी सजगता बरतनी चाहिए अन्यथा कई मौक़ों पर यह देखा गया है कि इस तरह के समाचारों ने लोगों में अवैज्ञानिक सोच और अंधविश्वास को जन्म दिया है। कई बार यह देखा गया है कि किसी विचित्र बच्चे के पैदा होने की घटना का समाचार चिकित्सा विज्ञान के संदर्भ से काटकर किसी अंधविश्वासी संदर्भ में प्रस्तुत कर दिया जाता है। भूत-प्रेत के क़िस्से-कहानी समाचार नहीं हो सकते। किसी इंसान को भगवान बनाने के मिथ गढ़ने से भी समाचार मीडिया को बचना चाहिए। 

     

    पाठक वर्ग

    आमतौर पर हर समाचार संगठन से प्रकाशित-प्रसारित होने वाले समाचारपत्र और रेडियो/टी.वी. चैनलों का एक ख़ास पाठक/दर्शक/श्रोता वर्ग होता है। समाचार संगठन समाचारों का चुनाव करते हुए अपने पाठक वर्ग की रुचियों और ज़रूरतों का विशेष ध्यान रखते हैं। ज़ाहिर है कि किसी समाचारीय घटना का महत्त्व इससे भी तय होता है कि किसी ख़ास समाचार का ऑडिएंस कौन है और उसका आकार कितना बड़ा है। इन दिनों ऑडिएंस का समाचारों के महत्त्व के आकलन में प्रभाव बढ़ता जा रहा है। इसका एक नतीजा यह हुआ है कि अतिरिक्त क्रय शक्ति वाले सामाजिक तबकों अर्थात अमीरों और मध्यम वर्ग में अधिक पढ़े जाने वाले समाचारों को ज़्यादा महत्त्व मिल रहा है। इसकी वजह यह है कि विज्ञापनदाताओं की इन वर्गों में ज़्यादा रुचि होती है। लेकिन इस वजह से समाचार माध्यमों में ग़रीब और कमज़ोर वर्ग के पाठकों और उनसे जुड़ी ख़बरों को नज़रअंदाज़ करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। 

     

    नीतिगत ढाँचा

    विभिन्न समाचार संगठनों की समाचारों के चयन और प्रस्तुति को लेकर एक नीति होती है। इस नीति को ‘संपादकीय नीति’ भी कहते हैं। संपादकीय नीति का निर्धारण संपादक या समाचार संगठन के मालिक करते हैं। समाचार संगठन, समाचारों के चयन में अपनी संपादकीय नीति का भी ध्यान रखते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे केवल संपादकीय नीति के अनुकूल ख़बरों का ही चयन करते हैं बल्कि वे उन ख़बरों को भी चुनते हैं जो संपादकीय नीति के अनुकूल नहीं है। यह ज़रूर हो सकता है कि संपादकीय लाइन के प्रतिकूल ख़बरों को उतनी प्रमुखता न दी जाए जितनी अनुकूल ख़बरों को दी जाती है।

     

    संपादन

    जनसंचार माध्यमों में द्वारपाल की भूमिका की चर्चा हमने अध्याय 1 में की थी। समाचार संगठनों में द्वारपाल की भूमिका संपादक और सहायक संपादक, समाचार संपादक, मुख्य उपसंपादक और उपसंपादक आदि निभाते हैं। वे न सिर्फ़ अपने संवाददाताओं और अन्य स्रोतों से प्राप्त समाचारों के चयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं बल्कि उनकी प्रस्तुति की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं पर होती है। समाचार संगठनों में समाचारों के संकलन का कार्य जहाँ रिपोर्टिंग की टीम करती है, वहीं उन्हें संपादित कर लोगों तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी संपादकीय टीम पर होती है।

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    संपादन का अर्थ है किसी सामग्री से उसकी अशुद्धियों को दूर करके उसे पठनीय बनाना। एक उपसंपादक अपने रिपोर्टर की ख़बर को ध्यान से पढ़ता है और उसकी भाषा-शैली, व्याकरण, वर्तनी तथा तथ्य संबंधी अशुद्धियों को दूर करता है। वह उस ख़बर के महत्त्व के अनुसार उसे काटता छाँटता है और उसे कितनी और कहाँ जगह दी जाए, यह तय करता है। इसके लिए वह संपादन के कुछ सिद्धांतों का पालन करता है।

     

    संपादन के सिद्धांत

    पत्रकारिता कुछ सिद्धांतों पर चलती है। एक पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह समाचार संकलन और लेखन के दौरान इनका पालन करेगा। आप कह सकते हैं कि ये पत्रकारिता के आदर्श या मूल्य भी है। इनका पालन करके ही एक पत्रकार और उसका समाचार संगठन अपने पाठकों का विश्वास जीत सकता है। किसी भी समाचार संगठन की सफलता उसकी विश्वसनीयता पर टिकी होती है। पत्रकारिता की साख बनाए रखने के लिए निम्नलिखित सिद्धांतों का पालन करना ज़रूरी है—

    • तथ्यों की शुद्धता (एक्युरेसी)

    • वस्तुपरकता (ऑब्जेक्टीविटी)

    • निष्पक्षता (फ़ेयरनेस)

    • संतुलन (बैलेंस)

    • स्रोत (सोर्सिंग-एट्रीब्यूशन)

    आइए, अब इन सिद्धांतों की संक्षेप में चर्चा करें और उनका अर्थ समझने की कोशिश करें।

     

    तथ्यों की शुद्धता वा तथ्यपरकता (एक्युरेसी)

    एक आदर्श रूप में मीडिया और पत्रकारिता यथार्थ या वास्तविकता का प्रतिबिंब है। इस तरह एक पत्रकार समाचार के रूप में यथार्थ को पेश करने की कोशिश करता है। लेकिन यह अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है। सच यह है कि मानव यथार्थ की नहीं, यथार्थ की छवियों की दुनिया में रहता है। किसी भी घटना के बारे में हमें जो भी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं, उसी के अनुसार हम उस यथार्थ की एक छवि अपने मस्तिष्क में बना लेते हैं और यही छवि हमारे लिए वास्तविक यथार्थ का काम करती है। एक तरह से हम संचार माध्यमों द्वारा सृजित छवियों की दुनिया में रहते हैं।

    दरअसल, यथार्थ को उसकी संपूर्णता में प्रतिबिंबित करने के लिए आवश्यक है कि ऐसे तथ्यों का चयन किया जाए जो उसका संपूर्णता में प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन समाचार में हम किसी भी यथार्थ को अत्यंत सीमित चयनित सूचनाओं और तथ्यों के माध्यम से ही व्यक्त करते हैं। इसलिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि किसी भी विषय के बारे में समाचार लिखते वक़्त हम किन सूचनाओं और तथ्यों का चयन करते हैं और किन्हें छोड़ देते हैं। चुनौती यही है कि ये सूचनाएँ और तथ्य सबसे अहम हों और संपूर्ण घटना का प्रतिनिधित्व करते हों। तथ्य बिलकुल सटीक और सही होने चाहिए और उन्हें तोड़ा-मरोड़ा नहीं जाना चाहिए।

    जैसे छह अंधों और एक हाथी की कहानी को ही लें। वे तथ्य या सूचनाएँ जो हर अंधे ने हाथी को छूकर प्राप्त किए, अपने आप में सच थे। हाथी का कान पंखे जैसा होता है लेकिन हाथी तो पंखे जैसा नहीं होता। इस तरह हम कह सकते हैं कि तथ्य अपने आप में तो सत्य होते हैं लेकिन अगर किसी संदर्भ में उनका प्रयोग किया जा रहा हो तो उनका पूरे विषय के संदर्भ में प्रतिनिधित्वपूर्ण होना या कई तथ्यों को मिलाकर देखना आवश्यक है। उस स्थिति में तथ्य यथार्थ की सही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।

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    वस्तुपरकता (ऑब्जेक्टीविटी)

    वस्तुपरकता को भी तथ्यपरकता से आँकना आवश्यक है। वस्तुपरकता और तथ्यपरकता के बीच काफ़ी समानता भी है।

    लेकिन दोनों के बीच के अंतर को भी समझना ज़रूरी है। एक जैसे होते हुए भी ये दोनों अलग विचार हैं। तथ्यपरकता का संबंध जहाँ अधिकाधिक तथ्यों से है वहीं वस्तुपरकता का संबंध इस बात से है कि कोई व्यक्ति तथ्यों को कैसे देखता है? किसी विषय या मुद्दे के बारे में हमारे मस्तिष्क में पहले से बनी हुई छवियाँ समाचार मूल्यांकन की हमारी क्षमता को प्रभावित करती हैं और हम इस यथार्थ को उन छवियों के अनुरूप देखने का प्रयास करते हैं।

    हमारे मस्तिष्क में अनेक मौक़ों पर इस तरह की छवियाँ वास्तविक भी हो सकती हैं और वास्तविकता से दूर भी हो सकती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वस्तुपरकता की अवधारणा का संबंध हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक मूल्यों से अधिक है। हमें ये मूल्य हमारे सामाजिक माहौल से मिलते हैं। बचपन से ही हम स्कूल में, घर में, सड़क पर चलते हर क़दम, हर पल सूचनाएँ प्राप्त करते हैं और दुनियाभर के स्थानों, लोगों, संस्कृतियों आदि सैकड़ों विषयों के बारे में अपनी एक धारणा या छवि बना लेते हैं। वस्तुपरकता का तकाज़ा यही है कि एक पत्रकार समाचार के लिए तथ्यों का संकलन और उसे प्रस्तुत करते हुए अपने आकलन को अपनी धारणाओं या विचारों से प्रभावित न होने दे।

    वैसे यह सच है कि यह दुनिया हमेशा सतरंगी और विविध रहेगी। इसे देखने के दृष्टिकोण भी अनेक होंगे। इसलिए कोई भी समाचार सबके लिए एक साथ वस्तुपरक नहीं हो सकता। एक ही समाचार किसी के लिए वस्तुपरक हो सकता है और किसी के लिए पूर्वाग्रह से प्रभावित हो सकता है। लेकिन एक पत्रकार को जहाँ तक संभव हो, अपने लेखन में वस्तुपरकता का ध्यान ज़रूर रखना चाहिए।

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    निष्पक्षता (फ़ेयरनेस)

    एक पत्रकार के लिए निष्पक्ष होना भी बहुत ज़रूरी है। उसकी निष्पक्षता से ही उसके सामाचार संगठन की साख बनती है। यह साख तभी बनती है जब समाचार संगठन बिना किसी का पक्ष लिए सचाई सामने लाते हैं। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इसकी राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में अहम भूमिका है। लेकिन निष्पक्षता का अर्थ तटस्थता नहीं है। इसलिए पत्रकारिता सही और ग़लत, अन्याय और न्याय जैसे मसलों के बीच तटस्थ नहीं हो सकती बल्कि वह निष्पक्ष होते हुए भी सही और न्याय के साथ होती है।

    जब हम समाचारों में निष्पक्षता की बात करते हैं तो इसमें न्यायसंगत होने का तत्त्व अधिक अहम होता है। आज मीडिया एक बहुत बड़ी ताक़त है। एक ही झटके में वह किसी की इज़्ज़त पर बट्टा लगाने की ताक़त रखती है। इसलिए किसी के बारे में समाचार लिखते वक़्त इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कहीं किसी को अनजाने में ही बिना सुनवाई के फाँसी पर तो नहीं लटकाया जा रहा है।

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    संतुलन (बैलेंस)

    निष्पक्षता की अगली कड़ी संतुलन है। आमतौर पर मीडिया पर आरोप लगाया जाता है कि समाचार कवरेज संतुलित नहीं है यानी वह किसी एक पक्ष की ओर झुका है। आमतौर पर समाचार में संतुलन की आवश्यकता वहीं पड़ती है जहाँ किसी घटना में अनेक पक्ष शामिल हों और उनका आपस में किसी न किसी रूप में टकराव हो। उस स्थिति में संतुलन का तक़ाज़ा यही है कि सभी संबद्ध पक्षों की बात समाचार में अपने-अपने समाचारीय वज़न के अनुसार स्थान पाए। 

    समाचार में संतुलन का महत्त्व तब कहीं अधिक हो जाता है जब किसी पर किसी तरह के आरोप लगाए गए हों या इससे मिलती-जुलती कोई स्थिति हो। उस स्थिति में हर पक्ष की बात समाचार में आनी चाहिए अन्यथा यह एकतरफ़ा चरित्र हनन का हथियार बन सकता है। व्यक्तिगत क़िस्म के आरोपों में आरोपित व्यक्ति के पक्ष को भी स्थान मिलना चाहिए। लेकिन यह स्थिति तभी संभव हो सकती है जब आरोपित व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में हो और आरोपों के पक्ष में पक्के सबूत नहीं हों या उनका सही साबित होना काफ़ी संदिग्ध हो। लेकिन घोषित अपराधियों या गंभीर अपराध के आरोपियों को संतुलन के नाम पर सफ़ाई देने का अवसर देने की ज़रूरत नहीं है। संतुलन के नाम पर समाचार मीडिया इस तरह के तत्त्वों का मंच नहीं बन सकता।

    संतुलन का सिद्धांत अनेक सार्वजनिक मसलों पर व्यक्त किए जाने वाले विचारों और दृष्टिकोण पर तकनीकी ढंग से लागू नहीं किया जाना चाहिए।

     

    स्रोत

    हर समाचार में शामिल की गई सूचना और जानकारी का कोई स्रोत होना आवश्यक है। यहाँ स्रोत के संदर्भ में सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि किसी भी समाचार संगठन के स्रोत होते हैं और फिर उस समाचार संगठन का पत्रकार जब सूचनाएँ एकत्रित करता है तो उसके अपने भी स्रोत होते हैं। इस तरह किसी भी दैनिक समाचारपत्र के लिए पीटीआई (भाषा), यूएनआई (यूनीवार्ता) जैसी समाचार एजेंसियाँ और स्वयं अपने ही संवाददाताओं और रिपोर्टरों का तंत्र समाचारों का स्रोत होता है। लेकिन चाहे समाचार एजेंसी हो या समाचारपत्र, इनमें काम करने वाले पत्रकारों के भी अपने समाचार स्रोत होते हैं। यहाँ हम एक पत्रकार के समाचार के स्रोतों की चर्चा करेंगे।

    समाचार की साख को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि इसमें शामिल की गई सूचना या जानकारी का कोई स्रोत हो और वह स्रोत इस तरह की सूचना या जानकारी देने का अधिकार रखता हो और समर्थ हो। कुछ जानकारियाँ बहुत सामान्य होती हैं जिनके स्रोतों का उल्लेख करना आवश्यक नहीं है। लेकिन जैसे ही कोई सूचना ‘सामान्य’ होने के दायरे से बाहर निकलकर ‘विशिष्ट’ होती है उसके स्रोत का उल्लेख आवश्यक हो जाता है। स्रोत के बिना उसकी साख नहीं होगी। एक समाचार में समाहित सूचनाओं का स्रोत होना आवश्यक है और जिस सूचना का कोई स्रोत नहीं है, उसका स्रोत या तो पत्रकार स्वयं है या फिर यह एक सामान्य जानकारी है जिसका स्रोत देने की आवश्यकता नहीं है।

    आमतौर पर पत्रकार स्वयं किसी सूचना का प्रारंभिक स्रोत नहीं होता। वह किसी घटना के समय घटनास्थल पर उपस्थित नहीं होता। वह घटना के बाद घटनास्थल पर पहुँचता है इसलिए यह सब कैसे हुआ, यह जानने के लिए उसे दूसरे स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। अगर एक पत्रकार स्वयं अपनी आँखों से पुलिस फ़ायरिंग में या अन्य किसी भी तरह की हिंसा में मरने वाले दस लोगों के शव देखता है तो निश्चय ही वह ख़ुद दस लोगों के मरने के समाचार का स्रोत हो सकता है। लेकिन उसे इसकी पुष्टि करने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए।

     

    पत्रकारिता के अन्य आयाम

    समाचारपत्र पढ़ते समय पाठक हर समाचार से एक ही तरह की जानकारी की अपेक्षा नहीं रखता। कुछ घटनाओं के मामले में वह उसका विवरण विस्तार से पढ़ना चाहता है तो कुछ अन्य के संदर्भ में उसकी इच्छा यह जानने की होती है कि घटना के पीछे क्या है? उसकी पृष्ठभूमि क्या है? उस घटना का उसके भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा और इससे उसका जीवन तथा समाज किस तरह प्रभावित होगा? समय, विषय और घटना के अनुसार पत्रकारिता में लेखन के तरीक़े बदल जाते हैं। यही बदलाव पत्रकारिता में कई नए आयाम जोड़ता है। समाचार के अलावा विचार, टिप्पणी, संपादकीय, फ़ोटो और कार्टून पत्रकारिता के अहम हिस्से हैं। समाचारपत्र में इनका विशेष स्थान और महत्त्व है। इनके बिना कोई समाचारपत्र स्वयं को संपूर्ण नहीं कह सकता।

    संपादकीय पृष्ठ को समाचारपत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण पृष्ठ माना जाता है। इस पृष्ठ पर अख़बार विभिन्न घटनाओं और समाचारों पर अपनी राय रखता है। इसे संपादकीय कहा जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर अपने विचार लेख के रूप में प्रस्तुत करते हैं। आमतौर पर संपादक के नाम पत्र भी इसी पृष्ठ पर प्रकाशित किए जाते हैं। वह घटनाओं पर आम लोगों की टिप्पणी होती है। समाचारपत्र उसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं।

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    फ़ोटो पत्रकारिता ने छपाई की टेक्नॉलोजी विकसित होने के साथ ही समाचारपत्रों में अहम स्थान बना लिया है। कहा जाता है कि जो बात हज़ार शब्दों में लिखकर नहीं कही जा सकती, वह एक तस्वीर कह देती है। फ़ोटो टिप्पणियों का असर व्यापक और सीधा होता है। टेलीविज़न की बढ़ती लोकप्रियता के बाद समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में तस्वीरों के प्रकाशन पर ज़ोर और बढ़ा है।

    कार्टून कोना लगभग हर समाचारपत्र में होता है और उनके माध्यम से की गई सटीक टिप्पणियाँ पाठक को छूती हैं। एक तरह से कार्टून पहले पन्ने पर प्रकाशित होने वाले हस्ताक्षरित संपादकीय हैं। इनको चुटीली टिप्पणियाँ कई बार कड़े और धारदार संपादकीय से भी अधिक प्रभावी होती हैं।

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    रेखांकन और कार्टोग्राफ़ समाचारों को न केवल रोचक बनाते हैं बल्कि उन पर टिप्पणी भी करते हैं। क्रिकेट के स्कोर से लेकर सेंसेक्स के आँकड़ों तक-ग्राफ़ से पूरी बात एक नज़र में सामने आ जाती है। कार्टोग्राफ़ी का उपयोग समाचारपत्रों के अलावा टेलीविज़न में भी होता है।

     

    पत्रकारिता के कुछ प्रमुख प्रकार

     

    खोजपरक पत्रकारिता

    खोजपरक पत्रकारिता से आशय ऐसी पत्रकारिता से है जिसमें गहराई से छान-बीन करके ऐसे तथ्यों और सूचनाओं को सामने लाने की कोशिश की जाती है जिन्हें दबाने या छुपाने का प्रयास किया जा रहा हो। आमतौर पर खोजी पत्रकारिता सार्वजनिक महत्त्व के मामलों में भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियों को सामने लाने की कोशिश करती है। खोजी पत्रकारिता का उपयोग उन्हीं स्थितियों में किया जाता है जब यह लगने लगे कि सचाई को सामने लाने के लिए और कोई उपाय नहीं रह गया है। खोजी पत्रकारिता का ही एक नया रूप टेलीविज़न में स्टिंग ऑपरेशन के रूप में सामने आया है।

    हालाँकि भारत में खोजी पत्रकारिता तीन दशक पहले ही शुरू हो गई थी लेकिन हमारे देश में यह अब भी अपने शैशवकाल में ही है। जब ज़रूरत से ज़्यादा गोपनीयता बरती जाने लगे और भ्रष्टाचार व्यापक हो तो खोजी पत्रकारिता ही उसे सामने लाने का एकमात्र विकल्प बचती है। अमेरिका का वाटरगेट कांड खोजी पत्रकारिता का एक नायाब उदाहरण है, जिसमें राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। भारत में भी कई केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को खोजी पत्रकारिता के कारण अपने पदों से इस्तीफ़ा देना पड़ा।

     

    विशेषीकृत पत्रकारिता

    पत्रकारिता का अर्थ घटनाओं की सूचना देना मात्र नहीं है। पत्रकार से अपेक्षा होती है कि वह घटनाओं की तह तक जाकर उसका अर्थ स्पष्ट करे और आम पाठक को बताए कि उस समाचार का क्या महत्त्व है? इसके लिए विशेषता की आवश्यकता होती है। पत्रकारिता में विषय के हिसाब से विशेषता के सात प्रमुख क्षेत्र हैं। इनमें संसदीय पत्रकारिता, न्यायालय पत्रकारिता, आर्थिक पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता, विज्ञान और विकास पत्रकारिता, अपराध पत्रकारिता तथा फ़ैशन और फ़िल्म पत्रकारिता शामिल हैं। इन क्षेत्रों के समाचार और उनको व्याख्या उन विषयों में विशेषता हासिल किए बिना देना कठिन होता है।

     

    वॉचडॉग पत्रकारिता

    यह माना जाता है कि लोकतंत्र में पत्रकारिता और समाचार मीडिया का मुख्य उत्तरदायित्व सरकार के कामकाज पर निगाह रखना है और कहीं भी कोई गड़बड़ी हो तो उसका पर्दाफ़ाश करना है। इसे परंपरागत रूप से वॉचडॉग पत्रकारिता कहा जाता है। इसका दूसरा छोर सरकारी सूत्रों पर आधारित पत्रकारिता है। समाचार मीडिया केवल वही समाचार देता है जो सरकार चाहती है और अपने आलोचनात्मक पक्ष का परित्याग कर देता है। आमतौर पर इन दो बिंदुओं के बीच तालमेल के जरिए ही समाचार मीडिया और इसके तहत काम करने वाले विभिन्न समाचार संगठनों की पत्रकारिता का निर्धारण होता है।

     

    एडवोकेसी पत्रकारिता

    ऐसे अनेक समाचार संगठन होते हैं जो किसी विचारधारा या किसी ख़ास उद्देश्य या मुद्दे को उठाकर आगे बढ़ते हैं और उस विचारधारा या उद्देश्य या मुद्दे के पक्ष में जनमत बनाने के लिए लगातार और ज़ोर-शोर से अभियान चलाते हैं। इस तरह की पत्रकारिता को पक्षधर या एडवोकेसी पत्रकारिता कहा जाता है। आपने अक्सर देखा होगा कि भारत में भी कुछ समाचारपत्र या टेलीविज़न चैनल किसी ख़ास मुद्दे पर जनमत बनाने और सरकार को उसके अनुकूल प्रतिक्रिया करने के लिए अभियान चलाते हैं। उदाहरण के लिए जेसिका लाल हत्याकांड में न्याय के लिए समाचार माध्यमों ने सक्रिय अभियान चलाया।

    src=https://www.hindwi.org/Images/ContentImages/34.jpgवैकल्पिक पत्रकारिता

    मीडिया स्थापित राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का ही एक हिस्सा है और व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाकर चलने वाले मीडिया को मुख्यधारा का मीडिया कहा जाता है। इस तरह की मीडिया आमतौर पर व्यवस्था के अनुकूल और आलोचना के एक निश्चित दायरे में ही काम करता है। इस तरह के मीडिया का स्वामित्व आमतौर पर बड़ी पूँजी के पास होता है और वह मुनाफ़े के लिए काम करती है। उसका मुनाफ़ा मुख्यतः विज्ञापन से आता है।

    इसके विपरीत जो मीडिया स्थापित व्यवस्था के विकल्प को सामने लाने और उसके अनुकूल सोच को अभिव्यक्त करता है उसे वैकल्पिक पत्रकारिता कहा जाता है। आमतौर पर इस तरह के मीडिया को सरकार और बड़ी पूँजी का समर्थन हासिल नहीं होता है। उसे बड़ी कंपनियों के विज्ञापन भी नहीं मिलते हैं और वह अपने पाठकों के सहयोग पर निर्भर होता है।

     

    समाचार माध्यमों में मौजूदा रुझान झान

    देश में मध्यम वर्ग के तेज़ी से विस्तार के साथ ही मीडिया के दायरे में आने वाले लोगों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है। साक्षरता और क्रय शक्ति बढ़ने से भारत में अन्य वस्तुओं के अलावा मीडिया के बाज़ार का भी विस्तार हो रहा है। इस बाज़ार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हर तरह के मीडिया का फैलाव हो रहा है—रेडियो, टेलीविज़न, समाचारपत्र, सेटेलाइट टेलीविज़न और इंटरनेट सभी विस्तार के रास्ते पर हैं। लेकिन बाज़ार के इस विस्तार के साथ ही मीडिया का व्यापारीकरण भी तेज़ हो गया है और मुनाफ़ा कमाने को ही मुख्य ध्येय समझने वाले पूँजीवादी वर्ग ने भी मीडिया के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्रवेश किया है।

    व्यापारीकरण और बाज़ार होड़ के कारण हाल के वर्षों में समाचार मीडिया ने अपने ख़ास बाजार (क्लास मार्केट) को आम बाज़ार (मास मार्केट) में तब्दील करने की कोशिश की है। यही कारण है कि समाचार मीडिया और मनोरंजन की दुनिया के बीच का अंतर कम होता जा रहा है और कभी-कभार तो दोनों में अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है। समाचार के नाम पर मनोरंजन बेचने के इस रुझान के कारण आज समाचारों में वास्तविक और सरोकारीय सूचनाओं और जानकारियों का अभाव होता जा रहा है।

    आज निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा लोगों को ‘जानकार नागरिक’ बनाने में मदद कर रहा है बल्कि अधिकांश मौक़ों पर यही लगता है कि लोग 'गुमराह उपभोक्ता' अधिक बन रहे हैं, अगर आज समाचार की परंपरागत परिभाषा के आधार पर देश के जाने-माने समाचार चैनलों का मूल्यांकन करें तो एक-आध चैनल को छोड़कर अधिकांश सूचनारंजन (इंफ़ोटेनमेंट) के चैनल बनकर रह गए हैं, जिसमें सूचना कम और मनोरंजन ज़्यादा है। इसकी वजह यह है कि आज समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा एक ऐसा उद्योग बन गया है जिसका मक़सद अधिकतम मुनाफ़ा कमाना है। समाचार उद्योग के लिए समाचार भी पेप्सी-कोक जैसा एक उत्पाद बन गया है जिसका उद्देश्य उपभोक्ताओं को गंभीर सूचनाओं के बजाए सतही मनोरंजन से बहलाना और अपनी ओर आकर्षित करना हो गया है।

    दरअसल, उपभोक्ता समाज का वह तबका है जिसके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और व्यापारीकृत मीडिया अतिरिक्त क्रय शक्ति वाले सामाजिक तबके में अधिकाधिक पैठ बनाने की होड़ में उतर गया है। इस तरह की बाज़ार होड़ में उपभोक्ता को लुभाने वाले समाचार पेश किए जाने लगे हैं और उन वास्तविक समाचारीय घटनाओं की उपेक्षा होने लगी है जो उपभोक्ता के भीतर ही बसने वाले नागरिक की वास्तविक सूचना आवश्यकताएँ थीं और जिनके बारे में जानना उसके लिए आवश्यक है। इस दौर में समाचार मीडिया बाज़ार को हड़पने की होड़ में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की चाहत पर निर्भर होता जा रहा है और लोगों की जरूरत किनारे की जा रही है।

    इसमें कोई संदेह नहीं कि समाचार मीडिया में हमेशा से ही सनसनीखेज या पीत पत्रकारिता और पेज-थ्री पत्रकारिता की धाराएँ मौजूद रही हैं। इनका हमेशा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहा है जैसे ब्रिटेन का टेबलॉयड मीडिया और भारत में भी ‘ब्लिट्ज’ जैसे कुछ समाचारपत्र रहे हैं। पेज-थ्री भी मुख्यधारा की पत्रकारिता में मौजूद रहा है। लेकिन इन पत्रकारीय धाराओं के बीच एक विभाजन रेखा थी जिसे व्यापारीकरण के मौजूदा रुझान ने ख़त्म कर दिया है।

    यह स्थिति हमारे लोकतंत्र के लिए एक गंभीर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट पैदा कर रही है। आज हर समाचार संगठन सबसे अधिक बिकाऊ बनने की होड़ में एक ही तरह के समाचारों पर टूटता दिखाई पड़ रहा है। इससे विविधता ख़त्म हो रही है और ऐसी स्थिति पैदा हो रही है जिसमें अनेक अख़बार हैं और सब एक जैसे ही हैं। अनेक समाचार चैनल हैं। ‘सर्फ़’ करते रहिए, बदलते रहिए और एक ही तरह के समाचारों को एक ही तरह से प्रस्तुत होते देखते रहिए।

    विविधता समाप्त होने के साथ-साथ समाचार माध्यमों में केंद्रीकरण का रुझान भी प्रबल हो रहा है। हमारे देश में परंपरागत रूप से कुछ बड़े राष्ट्रीय अख़बार थे। इसके बाद क्षेत्रीय प्रेस था और अंत में ज़िला-तहसील स्तर के छोटे समाचारपत्र थे। नई प्रौद्योगिकी आने के बाद पहले तो क्षेत्रीय अख़बारों ने ज़िला और तहसील स्तर के प्रेस को हड़प लिया और अब राष्ट्रीय प्रेस क्षेत्रीय पाठकों में अपनी पैठ बना रहा है और क्षेत्रीय प्रेस राष्ट्रीय रूप अख़्तियार कर रहा है। आज चंद समाचारपत्र के अनेक संस्करण हैं और समाचारों का कवरेज अत्यधिक आत्मकेंद्रित, स्थानीय और विखंडित हो गया है। समाचार कवरेज में विविधता का अभाव तो है ही, साथ ही समाचारों की पिटी-पिटाई अवधारणाओं के आधार पर लोगों की रुचियों और प्राथमिकताओं को परिभाषित करने का रुझान भी प्रबल हुआ है।

    लेकिन समाचार मीडिया के प्रबंधक बहुत समय तक इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि साख और प्रभाव समाचार मीडिया की सबसे बड़ी ताक़त होती है। आज समाचार मीडिया की साख में तेज़ी से ह्रास हो रहा है और इसके साथ ही लोगों की सोच को प्रभावित करने की इसकी क्षमता भी कुंठित हो रही है। समाचारों को उनके न्यायोचित और स्वाभाविक स्थान पर बहाल करके ही समाचार मीडिया की साख और प्रभाव के ह्रास की प्रक्रिया को रोका जा सकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 28)
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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