एक अंग भुज चार
ek ang bhuj chaar
एक अंग भुज चार शीश सोलह जो कहिये।
चार चरण सों चलै नेत्र चौंसठ युग लहिये॥
द्वै मुख हैं परत्यक्ष चौदह भुवन में छाये।
तीन लोक में फिरे देव सब पूजन आये॥
सातद्वीप नवखणडमें सो आदि अन्त जाको सुयश।
बैताल कहै सुनु बिक्रम तो कहुयोग शृंगार के बीररस॥
- पुस्तक : कुण्डलियाँ गिरिधरराय (पृष्ठ 37)
- रचनाकार : बैताल
- प्रकाशन : नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ
- संस्करण : 1922
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