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विकट भट

wicket bhat

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    ओठों से हटा के रिक्त स्वर्ण-सुरा-पात्र को,

    सहसा विजयसिंह राजा जोधपुर के,

    पोकरणवाले सरदार देवीसिंह से

    बोले दरबार ख़ास में कि—“देवीसिंहजी,

    कोई यदि रूठ जाए मुझसे तो क्या करें?”

    बोले सरदार—“खमा पृथ्वीनाथ, यह क्या?

    ऐसा कौन होगा कि जो रूठ जाए आप से?”

    बोले फिर भूप—“तो भी पूछता हूँ, क्या करें?”

    “जीवन से हाथ धोवे और मरे मुझसे”

    देवीसिंह ने यों कहा। भूप फिर बोले यों—

    “और तुम रूठ जाओ तो बताओ, क्या करो?”

    देवीसिंह चौंके—“खमा पृथ्वीनाथ, यह क्या!

    आपसे मैं रूठ जाऊँ, ऐसा भाव क्यों हुआ?”

    राजा ने कहा कि “मैंने पूछा है सहज ही,

    यदि तुम रूठ जाओ, तो बताओ, क्या करो?”

    देवीसिंह बोले—“खमा अन्नदाता, यह क्या?

    सेवक हूँ मैं तो और आप मेरे स्वामी हैं;

    आपसे क्यों रूठूँगा भला मैं? आप मुझको—

    देते हैं टुकड़े और उनसे मैं जीता हूँ;

    जाऊँगा कहाँ मैं फिर रूठ कर आपसे?”

    “तो भी, यदि रूठ जाओ?” पूछा फिर राजा ने।

    उत्तर दिया यों सरदार ने पुन:—“क्या मैं

    नमकहराम हूँ जो रूठ जाऊँ स्वामी से?”

    फिर भी विजयसिंह प्रश्न करने लगे।

    सुन कर बार-बार बात वही उनकी

    वृद्ध वीर ठाकुर को क्रोध कुछ गया।

    लाली दौड़ आई सौम्य, शांत, गौर गात्र में,

    बदन गंभीर हुआ, किंतु रहे मौन वे।

    बोले फिर भूप—“देवीसिंहजी, कहा नहीं?

    यदि तुम रूठ जाओ मुझसे तो क्या करो?”

    “पृथ्वीनाथ, मैं जो रूठ जाऊँ” कहा वीर ने—

    “जोधपुर की तो फिर बात ही क्या, वह तो

    रहता है मेरी कोटरी की पर्तली में ही,

    मैं तो ‘नवकोटी मारवाड़’ को उलट दूँ।”

    कहते हुए यों ढाल सामने जो रक्खी थी,

    बाएँ हाथ से उन्होंने उलटी पटक दी!

    सन्नाटा सभा में हुआ, सब चुपचाप थे;

    सिर को हिलाते हुए सन्न रहे राजा भी!

    दूसरे दिवस देवीसिंह दरबार में

    जाने के लिए जो सिंहपौर पार कर के,

    चौक में—करों के बल—पीनस से उतरे,

    एक जन पीछे से उठा के खड्ग उनका,

    भाग गया, लौट कर देखा जो उन्होंने तो

    ढाल ही दिखाई पड़ी, चौंक उठे तब वे!

    चारों ओर दृष्टि डाली, द्वार सब बंद थे;

    पीनस के डंडे पर रक्खे हुए हाथ वे

    क्षण भर सोचा किए इस अभिसिंध को।

    देखा सिर ऊँचा कर ऊपर को अंत में—

    सामने विजयसिंह छत पर थे खड़े।

    “मेरे साथ ऐसा व्यवहार! भला, अब क्या

    इच्छा है?” उन्होंने कहा भूपति को देख के।

    आज्ञा हुई—“शीघ्र इसे जीता ही पकड़ लो!”

    पीनस का डंडा किंतु अब भी था हाथ में,

    जाता कौन मरने को ठाकुर के सामने!

    फंदे तब फेंके गए उनके फँसाने को

    और वे फँसाए गए, बाँधे गए खंभ से!

    “हाँ, अब अमल आवे” आज्ञा हुई नृप की;

    सोने के कटोरों में अफ़ीम घुलने लगी।

    देवीसिंह को भी वह ठीकरे में मिट्टी के

    भेजी गई, देखते ही मानी सरदार से

    अब सहा गया, रहा गया मौन भी—

    “अधम, अधर्मी, अकृतज्ञ, अनाचारी रे,

    ऐसा अपमान!” कोड़ा खाके भला घोड़ा ज्यों—

    तड़पै, त्यों ठाकुर ने एक झटका दिया,

    टूटे गए बंधन तड़ाक, किंतु वेग था,

    सँभला मस्तक, भड़ाक हुआ भीत में!

    शोणित की लालिमा को चिह्न सम छोड़ के

    ठाकुर का जीवन-दिनेश अस्त हो गया!

    “हाय! पिता, ऐसा परिणाम हुआ आपका!

    किंतु आपका ही पुत्र हूँ मैं, यदि राजा के

    सामने प्रणत होऊँ तो मैं नत होऊँगा

    अपनी ठकुराना के आगे, यही प्रण है।

    आता है चढ़ाई कर पोकरण, आने दो,

    देखूँगा कृतघ्न को मैं, प्रस्तुत हो भाइयो,

    मान रखने को आज प्राण हमें देने हैं।”

    यों कह सबलसिंह पोकरण दुर्ग में

    बोले फिर—“जाय वह प्राण जिसे प्यारे हों,

    प्रस्तुत हो मरने के अर्थ जो रहे वही।”

    “प्रस्तुत हैं हम सब” सैनिकों ने यों कहा

    और, जो कहा सो सब करके दिखा दिया;

    प्राण-मोह छोड़ उन मुट्ठी भर वीरों की—

    टुकड़ी ने झंझा के समान, जोधपुर के

    घोर दल-बादल को छिन्न-भिन्न करके

    और भली भाँति से उड़ाके धूलि उसकी

    रण में सबलसिंह-युक्त गति वीरों की—

    पाई और मानों स्वर्ग लेकर ही शांति ली!

    सबल पिता का पुत्र, पौत्र देवीसिंह का

    बालक सवाईसिंह बारह बरस का,

    लड़ने को उद्दयत था; किंतु था अकेला ही;

    सेना हत हो चुकी थी पहले ही। राजा का

    हुक्म हुआ—“जोधपुर हाज़िर करो उसे।”

    “बेटा, तुझे राजा ने बुलाया है, जाने से

    तू भी बचेगा, किंतु”—बीच में ही माता से

    बोला वीर बालक कि “जननी, मैं जाऊँगा।

    किंतु इससे नहीं, कि यदि मैं जाऊँगा

    तो मैं भी बचूँगा नहीं, किंतु इससे कि मैं

    देखूँगा कृतघ्न क्रूर उस राजा के

    सींग पूँछ हैं या नहीं, क्योंकि पशुओं से भी

    नीच तथा मूढ़ महा मानता हूँ मैं उसे।”

    बोली तब वीर-माता आँसुओं से भीग के—

    “वत्स, जाने में भी मुझे क्षेम नहीं दीखता।

    ससुर गए हैं और स्वामी गए साथ ही,

    मेरे लाल, तू भी चला, कैसे धरूँ धैर्य मैं?

    रोने तक का भी अवकाश मुझे है नहीं;

    तो भी आन-बान बिना मरना है जीना भी।

    तुझको भी प्राणहीन देख सकती हूँ मैं,

    किंतु मानहीन देखा जाएगा मुझसे।

    सहना पड़ेगा सो सहूँगी, किंतु देखना,

    कहना वही जो कहा तेरे पितामह ने;

    भूल मत जाना जिस बात पर वे मरे।

    अच्छा, कह, तेरी कटारी की पर्तली में भी

    जोधपुर है या नहीं” पुत्र तब बोला यों—

    “इसका जवाब उसी घातक को दूँगा मैं;

    तू क्यों पूछती है प्रसू, क्या इस शरीर में

    शोणित क्रमागत नहीं है उन्हीं दादा का?

    किंतु एक प्रार्थना मैं करता हूँ तुझसे,

    अंतत: माँ, मेरा वह उत्तर सुने बिना

    छोड़ना नश्वर शरीर यह अपना।

    अपने अभागे इस पुत्र के विषय में

    संशय लिए ही चली जाना तू तात के

    पीछे, जिसमें कि उन्होंने दे सके तोष तू!”

    “जा, बेटा कदाचित सदा के लिए” हाय रे!

    करुणा से कंठ भर आया ठकुरानी का।

    जाकर अँधेरी एक कोठरी में वेग से,

    पृथ्वी पर लोट वह रोई ढाढ़ मार के,

    व्योम की भी छाती पर होने लगी लीक-सी!

    पुनरपि जोधपुर! जीत पोकरण को

    पीकर विजयसिंह एक प्याला और भी,

    बोले आहुए के सरदार जैतसिंह से—

    “जैतसिंह जी, क्या कहीं कोई ठौर ऐसा है

    डंके को बजा कर मैं जाऊँ जहाँ चढ़ के?”

    बोले जैतसिंह—“पृथ्वीनाथ, भला कौन-सा

    ऐसा ठौर है कि जहाँ जोधपुर के धनी

    डंके को बजा के चढ़ें?” भूप फिर बोले यों—

    “मैंने दूर-दूर तक सोच कर देखा है,

    किंतु तो भी दीख नहीं पड़ता है मुझको,

    जाऊँ जहाँ चढ़के मैं। देखूँ, तुम्हीं सोच के

    ऐसा ठौर बतलाओ।” जैतसिंह बोले यों—

    “पृथ्वीनाथ, ऐसा कौन ठौर है बताऊँ जो?”

    “तो भी” कह ठाकुर की ओर जो महीप ने

    देखा तो भृकुटियाँ थीं टेढ़ी वहाँ हो रहीं।

    बोले सरदार—“पृथ्वीनाथ! पूछते ही हैं

    तो मैं कई ऐसे ठौर आपको बताऊँगा,

    जैसे है उदयपुर जयपुर है, जहाँ—

    जावें तो हुज़ूर के भी दाँत खट्टे हो जावें!

    किंतु वे तो दूर भी हैं, सेवक को आज्ञा हो,

    जाऊँ आहुए मैं और पृथ्वीनाथ डंका दे

    चढ़कर आवें वहीं!” वीर चुप हो गया।

    “ऐसा है!” महीप बोले—“तो मैं विदा देता हूँ

    आहुए पधारें आप और सावधान हों।”

    कहके “जो आज्ञा” उठे जैतसिंह शीघ्र ही;

    डेरे पर आए और आहुए चले गए।

    भाई-बंद और सब सैनिक भी अपने

    जोड़ के उन्होंने सब हाल कहा उनसे।

    बोले सब—“चिंता कौन-सी है?” चढ़ आने दो,

    क्या कर सकेंगे महाराज यहाँ अपना?”

    सत्य ही विजयसिंह आहुए का, कोप से

    करके चढ़ाई भी कर सके कुछ भी।

    तीन दिन बीत गए युद्ध करते हुए।

    बोले तब वे कि—“अरे, टूटा नहीं आहुआ?”

    उत्तर मिला यों—“खमा पृथ्वीनाथ, अब भी

    आहुए मैं जैतसिंह जीवित जो बैठे हैं।”

    सोचा तब भूप ने कि टूटा नहीं आहुआ

    यह तो कलंक होगा, “अच्छा, जैतसिंह से

    जाकर कहो कि हमें दुर्ग में वे आने दें,

    रोके नहीं।” ठाकुर ने आज्ञा यह उनकी

    मान ली, यों भूपति ने आहुए के दुर्ग में

    जाकर प्रवेश किया, ठाकुर ने उनकी

    फेर दी दुहाई, नज़रें दीं, मनुहारें कीं,

    और उनके ही साथ आए जोधपुर वे।

    किंतु रात को जो वहाँ सोए वे महल में

    तो फिर जगे नहीं, सबेरे यों सुना गया—

    “जैतसिंह मारे गए सोते हुए रात को!”

    सुन सब लोग हाय! हाय! करने लगे;

    कहता परंतु कौन भूपति से कुछ भी?

    बोला एक चारण कि—“मैं कहूँगा राजा से!”

    पहुँचे उसी दिन सवाईसिंह भी वहाँ;

    देख कर लोग उन्हें हाथ मलने लगे—

    बारी है अब हा! इस केसरी-किशोर की!

    दो-दो निज कंटक जो सालते थे, टाल के

    बैठे हैं विजयसिंह आम दरबार में;

    किंतु क्यों, जानें, आज भी हैं वे उदास-से।

    सब सरदार भी हैं बैठे मौन भाव से,

    मानों स्तब्ध रजनी में तारागण व्योम के!

    “राजा, बुरा काम किया” गूँजी गिरा सहसा!

    चौंक कर भूपति ने देखा तब सामने

    और दरबारियों ने, चारण था कहता।

    कर लिए नीचे सिर देख कर सबने;

    किंतु इतनी भी ताब भूपति की थी नहीं!

    कहता था चारण गंभीर धीर वाणी से—

    “राजा, बुरा काम किया, मैं ही नहीं कहता

    राजा, बुरा काम किया कहते हैं यों सभी।

    मारना नहीं था जैतसिंह जैसे वीर को;

    तोड़नी नहीं थी वह मूर्ति स्वामिधर्म की;

    माननी नहीं थीं तुझे बातें बेईमानों की!

    तुझ पर मरने को प्रस्तुत था आप ही

    शूर वह, मारना ही था तो उसे गाढ़े में

    आड़ा कर देना था, पीछे वह हटता।

    वीर वह ऐसा था कि आयुधों की झड़ी में

    तेरा मार्ग स्वच्छ कर देता अग्रगामी हो!

    शत्रुओं के हाथियों के हौदे बस ख़ाली हो!

    तुझको दिखाता वह अपने प्रहारों से।

    अब जब युद्ध में विपक्षियों के व्यूह में,

    टंकारित होंगे चाप, झंकारित असियाँ,

    भीड़ पड़ने से तब याद उस वीर की

    सालेगी हिए में तुझे, तू ही तब जानेगा।”

    मौन हुआ चारण, महीपति भी मौन थे;

    सचमुच जैतसिंह ऐसा ही पुरुष था।

    पोकरण और आहुआ थे जोधपुर के—

    अर्गल दो, टूट गए किंतु अब दोनों ही

    कौन यवनों को, मराठों को, अब रोकेगा?

    राजा पछताए, भर आए नेत्र उनके;

    किंतु बस क्या था अब हो गया सो हो गया।

    जी में क्रुद्ध हो रहे थे भूप पर लोग जो

    गई उन्हें भी दया दैन्य देख उनका!

    हाथ के इशारे से बिठाते हुए शांति से

    चारण को, बोले वे—“सवाईसिंह है कहाँ?

    लाओ उसे शीघ्र” दौड़े चोबदार शीघ्र ही

    और बुला लाए उस एक कुलदीप को।

    निर्भय मृगेंद्र नया करता प्रवेश है—

    वन में ज्यों, डाले बिना दृष्टि किसी ओर त्यों,

    भोर के भभूके-सा, प्रविष्ट हुआ साहसी

    बालवीर, मंद-मंद धीर गति से धरा

    मानो धँसी जा रही था, बदन गंभीर था,

    उठता शरीर मानों अंगे में आता था,

    वक्षस्थल देख के कपाट खुले जाते थे,

    मरने मारने ही को मानो कटि थी कसी,

    शोभित सुखड्ग उसमें था खरे पानी का,

    पर्तली पड़ी थी उपवीत-तुल्य कंधे में,

    उसमें कटार खोंसी, जिसकी समानता

    करने को भौंहें भव्य भाल पर थी तनी!

    छू रहा था बायाँ हाथ बढ़ कर जानु को,

    दाएँ हाथ में थी साँग, पीठ पर ढाल थी;

    तोड़े के स्वरूप में था सोना पड़ा पैरों में;

    आकृति ही देती थी परिचय प्रकृति का!

    चौंक पड़ी सारी सभा देख कर वीर बाल को;

    जान पड़ा भूप को कि देवीसिंह ही नया—

    जन्म लेके रहे हैं आज फिर से यहाँ!

    चाल वही, ढाल वही, गौरव वही तथा

    गर्व भी वही है! तब प्रश्न किया राजा ने—

    “बालक, सुनो, क्यों तुम्हें मैंने बुला भेजा है,

    जोधपुर रहता था पर्तली में जिसकी

    देवीसिंह वाली सो कटारी कहो मुझसे,

    अब भी तुम्हारे पास है या नहीं?” राजा के

    पूछने के साथ ही सवाईसिंह ने कहा

    निर्भय—“कटारी? धरा काँपी सदा जिससे?”

    ‘कंठ भी वही है अहा!’ जी में कहा राजा ने

    सुन के—“कटारी? धरा काँपी सदा जिससे?

    बिजली की बेटी वह? भौंह महाकाल की?

    शत्रु के चबाने को कराल डाढ़ यम की?

    चंपावत ठाकुरों की ‘पत’ वह लोक में?

    पूछते हैं आप क्या उसी की बात?” राजा का

    उनके जानते ही संमति के अर्थ में

    माथा डुला, कहता था बालक—“तो सुनिए,

    दादा ने कटारी वह मेरे पिता के लिए

    छोड़ी, और मेरे पिता सौंप गए मुझको।

    पर्तली के साथ वह मेरे इस पार्श्व में

    अब भी है पृथ्वीनाथ, एक जोधपुर क्या?

    कितने ही दुर्ग पड़े रहते हैं सर्वदा

    क्षात्र-कीर्ति-कोषवाली पर्तली में उसकी!

    सच्ची बात कहने से आप रूठ जाएँगे;

    किंतु जब पूछते हैं कैसे कहूँ झूठ मैं?

    होता जो जोधपुर पर्तली में उसकी,

    कहिए तो कैसे वह प्राप्त होता आपको?”

    सिंहासन छोड़ उठे भूपति तुरंत ही,

    छाती से लगा के उस क्षत्रियकुमार को

    चारण से बोले यों कि—“बारठजी, सत्य ही

    मैंने बुरा काम किया, भूल हुई मुझसे।

    किंतु देवीसिंह और जैतसिंह दोनों ही

    मर के भी जीवित हैं, देखो, इस बच्चे को

    और आशीर्वाद दो कि यह सुख से जिए।

    मैं भी यही आशीर्वाद आज इसे देता हूँ।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 152)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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