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वीर अभिमन्यु

weer abhimanyu

जगन्नाथदास रत्नाकर

जगन्नाथदास रत्नाकर

वीर अभिमन्यु

जगन्नाथदास रत्नाकर

और अधिकजगन्नाथदास रत्नाकर

    धरम-सपूत की रजाइ चित-चाही पाइ,

    धायौ धारि हुलसि हथ्यार हरबर में।

    कहै रतनाकर सुभद्रा कौ लड़ैतौ लाल,

    प्यारी उत्तराहू की रुक्यौ सरबर में॥

    सारदूल-सावक बितुंड-झुंड में ज्यौं-त्यौं ही,

    पैठ्यौ चक्रव्यूह की अनूह अरबर में।

    लाग्यौ हास करन हुलास पर बैरिरि के,

    मुख मंद हास चंदहास करबर में॥

    बीरनि के मान गुमान रनधीरनि के,

    आन के बिधान भट-बृंद घमसानी के।

    कहै रतनाकर बिमोह अंध-भूपति के,

    द्रोह के सँदोह सूत-पूत अभिमानी के॥

    द्रोन के प्रबोध दुरबोध दुरजोधन के,

    आयु-औधि-दिवस जयद्रथ अठानी के।

    कौरव के दाप ताप पांडव के जात बहे,

    पानी माहिं पारथ-सपूत की कृपानी के॥

    पारध-सपूत की कृपान की अनोखी काट,

    देखि ठाट बैरिनि के ठठकि ठरे रहे।

    कहै रतनाकर सु सक असनी लौं पिल्यौ,

    चक्र-ब्यूह हूँ के गुन गौरव गरे रहे॥

    मानि निज वीरनि की भीर कौं गंध न्यून,

    द्रोन आदि बादि भूरि भ्रम सौं भरे रहे।

    खंडे रिपु-झुंडनि के मुंड जे अखंडित ते,

    मंडित घरीक रुंड-ऊपर धरे रहे॥

    चक्रब्यूह अचल अभेद भेदि बिक्रम सौं,

    आपुहीं बनावै बाट आपनी सुढंगी है।

    कहै रतनाकर रुकै कहूँ रोकैं रंच,

    झोंके झेलि पावत कोऊ ज्वान जंगी है॥

    बिमुख समूह जम-जूह के हवालैं होत,

    सनमुख सूरनि बनावै सुर-संगी है।

    पानी गंग-धार कौ कृपानी में धर्यौ है मनौ,

    जाहि करि अंगी होत अरि अरधंगी है॥

    बीर अभिमन्यु की लपालप कृपान बक्र,

    सक्र-असनी लौं चक्रब्यूह माहिं चमकी।

    कहै रतनाकर ढालनि पै खालनि पै,

    झिलिम झपालनि पै क्यौं हूँ कहूँ ठमकी॥

    आई कंध पै तौ बाँटि बंध प्रतिबंध सबै,

    काटि कटि-संधि लौं जनेवा ताकि तमकी।

    सीस पै परी तौ कुंड काटि मुंड काटि फेरि,

    रुंड के दुखंड कै धरा पै आनि धमकी॥

    गांडिव-धनी कौ लाल आइ ब्यूह-मांडव मैं,

    ऐसौ रन-तांडव मचायौ कर-कस तैं।

    कहै रतनाकर गुमान अवसान मान,

    करिगे पयान अरि-प्रान सरकस तैं॥

    काटे देत रोदा दंड चंड बरिबंडनि के,

    छाँटे भुज-दंड देत बान करकस तैं।

    ऐंचन पावैं धनु नैंकु धाक-धारी धीर,

    खैंचन पावैं बीर तीर तरकस तैं॥

    केते रहे हेरत तरेरत दृगनि केते,

    सुनि धुनि-धूम-धाम धनु के टकोरे की।

    कहै रतनाकर यौं घायनि की घाल भई,

    झिलिम झपाल भई झिंगुली पटोरे की॥

    बिरचित ब्यूह के बिचलि चल जूह भए,

    झेलत बनी झोंक-झपट झकोरे की।

    इंद्र-सुत-नंदन की बान-बरषा सौं बेगि,

    बीरनि की बारि ह्वै दिवारि गई सोरे की॥

    धरि धरि मारि मारि करि करि धाए बीर,

    सौंहैं आनि धीर रह्यौ भैया में बाबू में।

    कहै रतनाकर बिचल्यौ चलाएँ रंच,

    ऐसी अचलाई लखाई परै आबू में॥

    आवत हीं पास काटि डारत प्रयास बिना,

    मानौ चंद्रहास रास करत अलाबू में।

    पारथ के लाल पै पर काहू की मजाल परी,

    क़ाबू में आयौ आयौ जद्यपि चक़ाबू में॥

    एक उत्तरा कैं पति राखी पति पांडव की,

    दींहें पति केतिनि जे पाइ उमगाति हैं।

    कहै रतनाकर निहारि रन-कौतुक सो,

    जूटी सुर असुर बधूटी ललचाति हैं॥

    बड़े बड़े बमकत बीर रनधीरनि की,

    कढ़ति मियान तैं कृपान थहराति हैं।

    आगैं देखि घाय धाइ बरतिं घृताची आदि,

    पाछैं पेषि पकरि पिसाची लिए जाति हैं॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : रत्नाकर रचनावली (पृष्ठ 430)
    • संपादक : कमलाशंकर त्रिपाठी
    • रचनाकार : जगन्नाथदास रत्नाकर
    • प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ
    • संस्करण : 2009

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