भारत-भारती / भविष्यत् खंड / उद्बोधन
udbodhan
हतभाग्य हिंदू जाति! तेरा पूर्वदर्शन है कहाँ?
वह शील, शुद्धाचार, वैभव देख, अब क्या है यहाँ;
क्या जान पड़ती वह कथा अब स्वप्न की-सी है नहीं?
हम हों वहीं, पर पूर्व-दर्शन दृष्टि आते हैं कहीं?
बीती अनेक शताब्दियाँ, पर हाय! तू जागी नहीं;
वह कुंभकर्णी नींद तूने तनिक भी त्यागी नहीं!
देखें कहीं पूर्वज हमारे स्वर्ग से आकर हमें—
आँसू बहावें शोक से, इस वेष में पाकर हमें॥
अब भी समय है जागने का देख आँखें खोल के,
सब जग जगाता है तुझे, जग कर स्वयं जय बोल के।
निःशक्त यद्यपि हो चुकी है किंतु तु न मरी अभी,
अब भी पुनर्जीवन-प्रदायक साज हैं सम्मुख सभी॥
हम कौन थे, क्या हो गए हैं, जान लो इसका पता,
जो थे कभी गुरु, है न उनमें शिष्य की भी योग्यता!
जो थे सभी से अग्रगामी, आज पीछे भी नहीं,
है दीखती संसार में विपरीतता ऐसी कहीं?
दुर्दैव-पीड़ित जो पुराने चिह्न कुछ-कुछ रह गए,
देखा, न जाने भाव कितने व्यक्त करते हैं नए।
हा! क्या कहें आरंभ ही में रुँध रहा है जब गला,
भगवान्! क्या से क्या हुए हम, कुछ ठिकाना है भला!
कुछ काल में ये जीर्ण पहले चिह्न भी मिट जाएँगे,
फिर खोजने से भी न हम सब मार्ग अपना पाएँगे।
जातीय जीवन-दीप अब भी स्नेह पावेगा नहीं,
तो फिर अँधेरे में हमें कुछ हाथ आवेगा नहीं॥
अब भी सुधारेंगे न हम दुर्दैव-वश अपनी दशा,
तो नाम शेष हमें करेगा काल ले कर्कश कशा!
बस टिमटिमाता दीख पड़ता आज जीवन-दीप हैं,
हा दैव! क्या रक्षा न होगी, सर्वनाश समीप है?
निज पूर्वजों का वह अलौकिक सत्य, शील निहार लो,
फिर ध्यान से अपनी दशा भी एक बार विचार लो।
जो आज अपने आपको यों भूल हम जाते नहीं,
तो यों कभी संताप-मूलक शूल हम पाते नहीं॥
निज पूर्वजों के सद्गुणों को यत्न से मन में धरो,
सब आत्म-परिभव-भाव तज निज रूप का चिंतन करो।
निज पूर्वजों के सद्गुणों का गर्व जो रखती नहीं,
वह जाति जीवित जातियों में रह नहीं सकती कहीं॥
किस भाँति जीना चाहिए, किस भाँति मरना चाहिए;
सो सब हमें निज पूर्वजों से याद करना चाहिए।
पद-चिह्न उनके यत्नपूर्वक खोज लेना चाहिए,
निज पूर्व-गौरव-दीप को बुझने न देना चाहिए॥
हम हिदुओं के सामने आदर्श जैसे प्राप्त है—
संसार में किस जाति को, किस ठौर वैसे प्राप्त है?
भव-सिंधु में निज पूर्वजों को रीति से ही हम तरें,
यदि हो सकें वैसें न हम तो अनुकरण तो भी करें॥
क्या कार्य दुष्कर है भला यदि इष्ट ही हमको कहीं?
उस सृष्टिकर्त्ता ईश का ईशत्व क्या हममें नहीं?
यदि हम किसी भी कार्य को करते हुए असमर्थ हैं—
तो उस अखिल-कर्त्ता पिता के पुत्र ही हम व्यर्थ हैं॥
अपनी प्रयोजन-पूर्ति क्या हम आप कर सकते नहीं!
क्या तीस कोटि मनुष्य अपना ताप हर सकते नहीं?
क्या हम सभी मानव नहीं कि वा हमारे कर नहीं?
रो भी उठें हम तो बने क्या अन्य रत्नाकर नहीं?
हे भाइयो! सोए बहुत, अब तो उठो, जागो, अहो!
देखो ज़रा अपनी दशा, आलस्य को त्यागो अहो!
कुछ पार है, क्या-क्या समय के उलट फेर न हो चुके!
अब भी सजग होंगे न क्या? सर्वस्व तो हो खो चुके॥
विष-पूर्ण ईर्ष्या-द्वेष पहले शीघ्रता से छोड़ दो,
घर फूँकने वाली फुटैली फूट का सिर फोड़ दो।
मालिन्य से मुँह मोड़ कर मद-मोह के पद तोड़ दो,
टूटे हुए वे प्रेम-बंधन फिर परस्पर जोड़ दो॥
जागो अलग अविचार से, त्यागो कुसंग कुरीति का;
आगे बढ़ो निर्भीकता से, काम है क्या भीति का।
चिंता न विघ्नों की करो, पाणिग्रहण कर नीति का—
सुर-तुल्य अजरामर बनो, पीयूष पीकर प्रीति का॥
संसार की समरस्थली में धीरता धारण करो,
चलते हुए निज इष्ट-पथ में संकटों से मत डरो।
जीते हुए भी मृतक-सम रह कर न केवल दिन भरो,
वर वीर बन कर आप अपनी विघ्न-बाधाएँ हरो॥
है ज्ञात क्या तुमको नहीं तुम लोग तीस करोड़ हो,
यदि ऐक्य हो तो फिर तुम्हारा कौन जग में जोड़ हो?
उत्साह-जल से सींच कर हित का अखाड़ा गोड़ दो,
गर्दन अमित्र अध:पतन की ताल ठोंक मरोड़ दो॥
बैठे हुए हो व्यर्थ क्यों? आगे बढ़ो, ऊँचे चढ़ो;
है भाग्य की क्या भावना? अब पाठ पौरुष का पढ़ो।
है सामने का ग्रास भी मुख में स्वयं जाता नहीं!
हा! ध्यान उद्यम का तुम्हें तो भी कभी आता नहीं!
जो लोग पीछे थे तुम्हारे, बढ़ गए, हैं बढ़ रहे,
पीछे पड़े तुम दैव के सिर दोष अपना मढ़ रहे!
पर कर्म-तैल बिना कभी विधि-दीप जल सकता नहीं,
है दैव क्या? साँचे बिना कुछ आप ढल सकता नहीं॥
आओ मिलें सब देश-बांधव हार बन कर देश के,
साधक बनें सब प्रेम से सुख-शांतिमय उद्देश के।
क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो!
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो?
रखो परस्पर मेल मन से छोड़ कर अविवेकता,
मन का मिलन ही मिलन है, होती उसी से एकता।
तन मात्र के हो मेल से है मन भला मिलता कहीं,
है बाह्य बातों से कभी अंत:करण खिलता नहीं॥
सब बैर और विरोध का बल-बोध से वारण करो,
है भिन्नता में खिन्नता ही, एकता धारण करो।
है एकता ही मुक्ति ईश्वर-जीव के संबंध में,
वर्ण एकता ही अर्थ देती इस निकृष्ट निबंध में॥
है कार्य ऐसा कौन-सा साधे न जिसको एकता?
देती नहीं अद्भुत अलौकित शक्ति किसको एकता?
दो एक एकादश हुए, किसने नहीं देखे सुने?
हाँ, शून्य के भी योग से हैं अंग होते दश गुनें॥
प्रत्येक जन प्रत्येक जन को बंधु अपना जान लो,
सुख-दुःख अपने बंधुओं का आप अपना मान लो।
सब दुःख यों बँट कर घटेगा सौख्य पावेंगे सभी,
हाँ, शोक में भी सांत्वना के गीत गावेंगे सभी॥
साहाय्य दे सकते मनुज को मनुज हो, खग-मृग नहीं,
वे भी न दें तो सब मनुजता व्यर्थ है उनकी वहीं,
निज बंधुओं की ही न हम यदि पा सके प्रियता यहाँ—
तो उस महाप्रभु की कृपा-प्रियता हमें रखी कहाँ?
अपने सहायक आप हो, होगा सहायक प्रभु तभी;
बस चाहने से ही किसी को सुख नहीं मिलता कभी।
कर, पद, हृदय, दृग, कर्ण तुमको ईश ने सब कुछ दिया,
है कौन ऐसा काम जो तुमसे न जा सकता किया?
आने न दो अपने निकट औदास्य मय उत्ताप को,
आत्मावलंबी हो, न समझो तुच्छ अपने आपको।
है भिन्न परमात्मा तुम्हारे अमर आत्मा से नहीं,
एकत्व वारि-तरंग का भी भंग हो सकता कहीं!
अति धीरता के साथ अपने कार्य में तत्पर रहो,
आपत्तियों के वार सारे वीर वर बन कर सहो।
सब विघ्न-भय मिट जाएँगे, होगी सफलता अंत में,
फिर कीर्ति फैलेगी हमारी एक वार दिगंत में॥
बढ़ कर लता, द्रुम, गुल्म भी हैं फूलते-फलते यहाँ,
तो भी समुन्नति-मार्ग में हम लोग चलते हैं कहाँ?
घन घूम कर ही गरजते हैं, बरसते हैं सब कहीं,
हम किंतु निष्क्रिय हैं तभी तो तरसते हैं सब कहीं॥
जड़ दीप तो देकर हमें आलोक जलता आप है,
पर एक हममें दूसरे को दे रहा संताप है!
क्या हम जड़ों से भी जगत में हैं गए बीते नहीं?
हे भाइयो! इस भाँति तो तुम थे कभी जीते नहीं॥
सोचो कि जीने से हमारे लाभ होता है किसे?
है कौन, मरने से हमारे हानि पहुँचेगी जिसे?
होकर न होने के बराबर हो रहे हैं हम यहाँ,
दुर्लभ मनुज-जीवन वृथा ही खो रहे हैं हम यहाँ!
हो आप और सभी जनों को नित्य उत्साहित करो,
उत्पन्न तुम जिसमें हुए, निज देश का कुछ हित करो।
नर-जन्म पाकर लोक में कुछ काम करना चाहिए,
अपना नहीं तो पूर्वजों का नाम करना चाहिए॥
अनुदारता-दर्शक हमारे दूर सब अविवेक हों;
जितने अधिक हों तन भले हैं, मन हमारे एक हों।
आचार में कुछ भेद हो पर प्रेम हो व्यवहार में,
देखें, हमें फिर कौन सुख मिलता नहीं संसार में?
हमको समय को देखकर ही नित्य चलना चाहिए,
बदले हवा जब जिस तरह हमको बदलना चाहिए।
विपरीत विश्व-प्रवाह के निज नाव जा सकती नहीं,
अब पूर्व की बातें सभी प्रस्ताव पा सकती नहीं॥
व्यवसाय अपने व्यर्थ हैं अब नव्य यंत्रों के बिना,
परतंत्र है हम सब कहीं अब भव्य यंत्रों के बिना।
कल के हलों के सामने अब पूर्व का हल व्यर्थ है,
उस वाष्प विद्युत-सम्मुख देह का बल व्यर्थ है॥
है बदलता रहता समय उसकी सभी घातें नई,
कल काम में आती नहीं हैं आज की बातें कई!
है सिद्धि-मूल यही कि जब जैसा प्रकृति का रंग हो,
तब ठीक वैसा ही हमारी कार्य-कृति का ढंग हो॥
प्राचीन हों कि नवीन छोड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,
बन कर विवेकी तुम दिखाओ हंस-जैसी चातुरी।
'प्राचीन बातें ही भली हैं'—यह विचार अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहाँ वैसी व्यवस्था ठीक है॥
सर्वत्र एक अपूर्व युग का हो रहा संचार है,
देखो, दिनोंदिन बढ़ रहा विज्ञान का विस्तार है।
अब तो उठो, क्या पड़ रहे हो व्यर्थ सोच विचार में?
सुख दूर, जीना भी कठिन है श्रम बिना संसार में॥
पृथ्वी, पवन, नभ, जल, अनल सब लग रहे हैं काम में,
फिर क्यों तुम्हीं खोते समय हो व्यर्थ के विश्राम में?
बीते हज़ारों वर्ष तुमको नींद में सोते हुए,
बैठे रहोगे और कब तक भाग्य को रोते हुए?
इस नींद में क्या-क्या हुआ, यह भी तुम्हें कुछ ज्ञात है?
कितनी यहाँ लूटें हुईं, कितना हुआ अपघात है!
होकर न टस से मस रहे तुम एक ही करवट लिए,
निज दुर्दशा के दृश्य सारे स्वप्न-सम देखा किए!
इस नींद में ही तो यवन आकर यहाँ आदृत हुए,
जागे न हा! स्वातन्त्र्य खोकर अंत में तुम धृत हुए।
इस नींद में ही सब तुम्हारे पूर्व-गौरव हृत हुए,
और कब तक इस तरह सोते रहोगे मृत हुए?
उत्तप्त ऊष्मा के अनंतर दीख पड़ती वृष्टि है,
बदली न किंतु दशा तुम्हारी नित्य शनि की दृष्टि है!
है घूमता-फिरता समय तुम किंतु ज्यों के त्यों पड़े,
फिर भी अभी तक जी रहे हो, वीर हो निश्चय बड़े!
पशु और पक्षी आदि भी अपना हिताहित जानते,
पर हाय! क्या तुम अब उसे भी ही नहीं पहचानते?
निश्चेष्टता मानों हमारी नष्टता की दृष्टि है,
होती प्रलय के पूर्ण जैसे स्तब्ध सारी सृष्टि है॥
सोचो विचारो, तुम कहाँ हो, समय की गति है कहाँ,
वे दिन तुम्हारे आप ही क्या लौट आएँगे यहाँ?
ज्यों-ज्यों करेंगे देर हम वे और बढ़ते जाएँगे,
यदि बढ़ गए वे और तो फिर हम न उनको पाएँगे॥
करके उपेक्षा निज समय को छोड़ बैठे हो तुम्हीं,
दुष्कर्म करके भाग्य को भी फोड़ बैठे हो तुम्हीं।
बैठे रहोगे हाय! कब तक और यों ही तुम कहो?
अपनी नहीं तो पूर्वजों की लाज तो रखो अहो!
लो भाग अपना शीघ्र ही कर्तव्य के मैदान में,
हो बद्ध परिकर दो सहारा देश के उत्थान में।
डूबे न देखो नाव अपनी है पड़ी मँझधार में,
होगा सहायक कर्म का पतवार ही उद्धार में॥
भूलो न ऋषि-संतान हो, अब भी तुम्हें यदि ध्यान हो—
तो विश्व को फिर भी तुम्हारी शक्ति का कुछ ज्ञान हो।
बन कर अहो! फिर कर्म योगी वीर बड़भागी बनो,
परमार्थ के पीछे जगत में स्वार्थ के त्यागी बनो॥
होकर निराश कभी न बैठो, नित्य उद्योगी रहो;
सब देश हितकर कार्य में अन्योन्य सहयोगी रहो।
धर्मार्थ के भोगी रहो बस कर्म के योगी रहो,
रोगी रहो तो प्रेमरूपी रोग के रोगी रहो॥
पुरुषत्व दिखलाओ पुरुष हो, बुद्धि-बल से काम लो,
तब तक न थक कर तुम कभी अवकाश या विश्राम लो—
जब तक कि भारत पूर्व के पद पर न पुनरासीन हो,
फिर ज्ञान में, विज्ञान में, जब तक न वह स्वाधीन हो॥
निज धर्म का पालन करो, चारों फलों की प्राप्ति हो,
दुख-दाह, आधि-व्याधि सबकी एक साथ समाप्ति हो।
ऊपर कि नीचे एक भी सुर है नहीं ऐसा कहीं—
सत्कर्म में रत देख तुमको जो सहायक हो नहीं॥
देखो, तुम्हें पूर्वज तुम्हारे देखते हैं स्वर्ग से,
करते रहे जो लोक का हित उच्च आत्मोत्सर्ग से।
है दुख उन्हें अब स्वर्ग में भी पतित देख तुम्हें अरे!
संतान हो क्या तुम उन्हीं की राम! राम! हरे! हरे!!!
अब तो विदा कर दुर्गुणों को सद्गुणों को स्थान दो,
खोया समय यों ही बहुत अब तो उसे सम्मान दो।
चिरकाल तिमिरावृत रहे आलोक का भी स्वाद लो,
हो योग्य संतति, पूर्वजों से दिव्य आशीर्वाद लो॥
जग को दिखा दो यह कि अब भी हम सजीव, सशक्त हैं,
रखते अभी तक नाड़ियों में पूर्वजों का रक्त हैं।
ऐसा नहीं कि मनुष्यरूपी और कोई जंतु हैं,
अब भी हमारे मस्तकों में ज्ञान के कुछ तंतु हैं॥
अब भी सँभल जावें कहीं हम, सुलभ हैं सब साज भी,
बनना, बिगड़ना है हमारे हाथ अपना आज भी।
यूनान मिश्रादिक मिटे हैं किंतु हम अब भी बनें,
यद्यपि हमारे मेटने को ठाठ कितने ही ठने॥
हे आर्य-संतानों! उठो, अवसर निकल जावे नहीं,
देखो, बड़ों की बात जग में बिगड़ने पावे नहीं।
जग जान ले कि न आर्य केवल नाम के ही आर्य हैं,
वे नाम के अनुरूप ही करते सदा शुभ कार्य हैं॥
ऐसा करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो,
जर्जर तुम्हारी जाति का बेड़ा विपद से पार हो।
ऐसा न हो जो अंत में चर्चा करें ऐसी सभी—
थी एक 'हिंदू' नाम की भी निंद्य जाति यहाँ कभी॥
समझो न भारत-भक्ति केवल भूमि के ही प्रेम को,
चाहो सदा निज देशवासी बंधुओं के क्षेम को।
यों सभी जड़ जंतु भी स्वस्थान के अति भक्त हैं;
कृमि, कीट, खग, मृग, मीन भी हमसे अधिक अनुरक्त हैं॥
लाखों हमारे दीन:दुखी बंधु भूखों मर रहे,
पर हम व्यसन में डूब कर कितना अपव्यय कर रहे!
क्या देश-वत्सलता यही है? क्या यही सत्कार्य है?
क्या लक्ष्य जीवन का यही है? क्या यही औदार्य है?
मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा,
हैं सब स्वदेशी बंधु, उनके दुःखभागी हो सदा।
दे कर उन्हें साहाय्य भरसक सब विपत्तिव्यथा हरो,
निज दुःख से ही दूसरों के दुःख का अनुभव करो॥
अंत:करण उज्ज्वल करो औदार्य के आलोक से,
निर्मल बनो संतप्त होकर दूसरों के शोक से।
आत्मा तुम्हारा और सब का एक निरवच्छेद है,
कुछ भेद बाहर क्यों न हो, भीतर भला क्या भेद है?
सब से बड़ा गौरव यही तो है हमारे ज्ञान का—
जानें चराचर विश्व को हम रूप उस भगवान का।
इशस्थ सारी सृष्टि हममें और हम सब सृष्टि में,
है दर्शनों में दृष्टि जैसे और दर्शन दृष्टि में॥
सब से हमारे धर्म का ऊँचा यही तो लक्ष है,
होती असीम अनेकता में एकता प्रत्यक्ष हैं।
मति की चरमता या परमता है वही अधिभिन्नता,
बस छा रही सर्वत्र प्रभु की एक निर्वाच्छिन्नता॥
भगवान कहते हैं स्वयं हो, भेद भावों को तजे,
है रूप मेरा हो मुझे जो सर्व भूतों में भजे।
जो जानता सब में मुझे, सबको मुझी में जानता;
है मानता मुझको वहाँ, मैं भी उसी को मानता॥
हे भाइयो! भगवान के आदेश का पालन करो,
अनुदार भाव-कलंक-रूपी पंक-प्रक्षालन करो।
नवनीत-तुल्य दयार्द्र हो सब भाइयों के ताप में,
सबमें समझ कर आपको, सबको समझ लो आप में॥
बस मर्म स्वार्थ-त्याग ही तो है हमारे धर्म का,
है ईश्वरार्पण सर्वदा सब फल हमारे कर्म का।
निष्काम होना ही हमारा निरुपमेय महत्व हैं,
प्रभु का स्वयं श्रीमुख-कथित गीता-ग्रथित यह तत्त्व है॥
इतिहास है, हम पूर्व में स्वार्थी कभी होते न थे;
सुख-बीज हम अपने लिए ही विश्व में बोते न थे।
तब तो हमारे अर्थ यह संसार ही सुख-स्वर्ग था,
मानों हमारे हाथ पर रखा हुआ अपवर्ग था॥
हम पर हितार्थ सहर्ष अपने प्राण भी देते रहे,
हाँ, लोक के उपकार-हित ही जन्म हम लेते रहे।
सुर भी परीक्षक हैं हमारे धर्म के अनुराग के,
इतिहास और पुराण हैं साक्षी हमारे त्याग के॥
हैं जानते यह तत्व जो जन आज भी वे मान्य हैं,
चाहे बिना ही पा रहे वे सब कहीं प्राधान्य हैं—
जग में न उनको प्राप्त हो जो कौन ऐसी सिद्धि है?
उनके पदों पर लोटती सब ऋद्धियों की वृद्धि है॥
करते उपेक्षा यदि न हम उस उच्चतम उद्देश की,
तो आज यह अवनति नहीं होती हमारे देश की।
यदि इस समय भी सजग हों तो भी हमारा भाग्य है,
पर कर्म के तो नाम से ही अब हमें वैराग्य है!
सच्चे प्रयत्न कभी हमारे व्यर्थ हो सकते नहीं,
संसार भर के विघ्न भी उनको डुबो सकते नहीं!
वे तत्वदर्शी ऋषि हमारे कह रहे हैं यह कथा—
सत्यप्रतिष्ठायां क्रिया (सु)फलाश्रयत्वं सर्वथा॥
आओ, बनें शुभ साधना के आज से साधक सभी,
निज धर्म की रक्षा करें, जीवन सफल होगा तभी।
संसार अब देखे कि यदि हम आज हैं पिछड़े पड़े—
तो कल बराबर और परसों विश्व के आगे खड़े॥
ब्राह्मण बढ़ावे बोध को, क्षत्रिय बढ़ावें शक्ति को;
सब वैश्य निज वाणिज्य को, त्यों शूद्र भी अनुरक्ति को।
यो एक मन होकर सभी कर्तव्य के पालक बनें—
तो क्या न कीर्ति-वितान चारों ओर भारत के तने?
ब्राह्मण
हे ब्राह्मणो! फिर पूर्वजों के तुल्य तुम ज्ञानी बनो,
भूलो न अनुपम आत्म-गौरव, धर्म के ध्यानी बनो।
कर दो चकित फिर विश्व को अपने पवित्र प्रकाश से,
मिट जाएँ फिर सब तम तुम्हारे देश के आकाश से॥
प्रत्यक्ष था ब्रह्मत्व तुममें यदि उसे खोते नहीं—
तो आज यों सर्वत्र तुम लांछित कभी होते नहीं।
यह द्वार-द्वार न भीख तुमको माँगनी पड़ती कभी,
भू पर तुम्हें सुर जान कर थे मानते मानव सभी॥
क्षत्रिय
हे क्षत्रियो! सोचो तनिक, तुम आज कैसे हो रहे;
हम क्या कहें, कह दो तुम्हीं, तुम आज जैसे हो रहे।
स्वाधीनता सारी तुम्हीं ने है न खोई देश की?
बन कर विलासी, विग्रही नैया डुबोई देश की!
निज दुर्दशा पर आज भी क्यों ध्यान तुम देते नहीं?
अत्यंत ऊँचे से गिरे हा! किंतु तुम चेते नहीं!
अब भी न आँखें खोल कर क्या तुम बिलोकोगे कहो?
अब भी कुपथ की ओर से मन को न रोकेोगे कहो?
वीरो! उठो, अब तो कुयश की कालिमा को मेट दो,
निज देश को जीवन सहित तन, मन तथा धन भेंट दो।
रघु, राम, भीष्म तथा युधिष्ठिर-सम न हो जो ओज से—
तो वीर विक्रम से बने, विद्यानुरागी भोज-से॥
वैश्य
वैश्यो! सुनो, व्यापार सारा मिट चुका है देश का,
सब धन विदेशी हर रहे हैं, पार है क्या क्लेश का?
अब भी न यदि कर्तव्य का पालन करोगे तुम यहाँ—
तो पास हैं वे दिन कि जब भूखों मरोगे तुम यहाँ!
अब तो उठो,हे बंधुओं! निज देश की जय बोल दो;
बनने लगे सब वस्तुएँ, कल-कारखाने खोल दो।
जावे यहाँ से और कच्चा माल अब बाहर नहीं—
हो 'मेड इन' के बाद बस अब 'इंडिया' ही सब कहीं॥
है आज भी रत्न-प्रसू वसुधा यहाँ की-सी कहाँ?
पर लाभ उससे अब उठाते हैं विदेशी ही यहाँ!
उद्योग घर में भी अहो! हमसे किया जाता नहीं,
हम छाल-छिलके चूसते हैं, रस पिया जाता नहीं॥
शूद्र
शूद्रो! उठो, तुम भी कि भारत-भूमि डूबी जा रही,
है योगियों को भी अगम जो व्रत तुम्हारा है वही।
जो मातृ-सेवक हो वही सुत श्रेष्ठ जाता है गिना,
कोई बड़ा बनता नहीं लघु और नम्र हुए बिना॥
रखो न व्यर्थ घृणा कभी निज वर्ण से या नाम से,
मत नीच समझो आपको ऊँचे बनो कुछ काम से।
उत्पन्न हो तुम प्रभु-पदों से जो सभी के ध्येय हैं,
तुम हो सहोदर सुरसरी के चरित जिसके गेय हैं॥
साधु-संत
संतों! महंतों! स्वामियों! गौरव तुम्हारा ज्ञान है,
पर क्या कभी इस बात पर जाता तुम्हारा ध्यान है?
यह वेश चाहे सुगम हो, आवेश प्रति दुर्गम्य है;
सौरभ-रहित है जो सुमन वह रूप में क्या रम्य है?
हे साधुओ! सोए बहुत सब ईश्वराराधन करो,
उपदेश-द्वारा देश का कल्याण कुछ साधन करो।
डूबे रहोगे और कब तक हाय! तुम अज्ञान में?
चाहो तुम्हीं तो देश की काया पलट दो आन में॥
थे साधु तुलसीदास, नानक, रामदास समर्थ भी,
व्यवहृत यही पद हो रहा है आज उनके अर्थ भी
पर वे न होकर भी यहाँ उपकार सबका कर रहे,
सद्भाव उनके ग्रंथ सबके मानसों में भर रहे॥
कुछ वेश की भी लाज रखो, अज्ञता का अंत हो;
भर कर न केवल उदर ही तुम लोग सच्चे संत हो।
बाधा मिटा दो शीघ्र मन से इंद्रियों के रोग की,
फैले चमत्कृति फिर यहाँ पर सिद्धि-मूलक योग की॥
तीर्थगुरु
हे तीर्थगुरुओ! सोच लो, कैसा तुम्हारा नाम है,
यजमान का उद्धार करना ही तुम्हारा काम है।
पर आज आत्म-सुधार के भी दीखते लक्षण कहाँ?
चेतो, उठो, फिर तुम हमारे कर्णधार बनो यहाँ॥
शिक्षित
हे शिक्षितो! कुछ कर दिखाओ, ज्ञान का फल है यही,
हो दूसरों को लाभ जिससे श्रेष्ठ विद्या है वही।
संख्या तुम्हारी है, उसको बढ़ाओ शीघ्र ही,
नोचे पड़े हैं जो उन्हें ऊपर चढ़ाओ शीघ्र ही॥
अपने अशिक्षित भाइयों का प्रेमपूर्वक हित करो—
उनको समुन्नति से उन्हें उत्साह-युत परिचित करो।
ज्ञानानुभव से तुम न निज साहित्य को वंचित करो—
पाओ जहाँ जो बात अच्छी शीघ्र ही साबित करो॥
नेता
हे देशनेताओ! तुम्हीं पर सब हमारा भार है—
जीते तुम्हारे जीत है, हारे तुम्हारे हार है।
निःस्वार्थ, निर्भय भाव से निज नीति पर निश्चल रहो,
राष्ट्रवयं जागृयाम पुरोहिताः स्वाहा कहो॥
कवि
करते रहोगे पिष्ट-पोषण और कब तक कविवरों!
ऋच, कुच, कटाक्षों पर ही! अब तो न जीते जी मरो।
है बन चुका शुचि अशुचि अब तो कुरुचि को छोड़ो भला,
अब तो दया कर के सुरुचि का तुम न यों घोंटो गला॥
आनंददात्री शिक्षिका है सिद्ध कविता कामिनी,
है जन्म से ही वह यहाँ श्रीराम की अनुगामिनी।
पर अब तुम्हारे हाथ से वह कामिनी ही रह गई,
ज्योत्स्ना गई देखो, अँधेरी यामिनी ही रह गई!
अब तो विषय की ओर से मन की सुरति को फेर दो,
जिस ओर गति हो समय की उस ओर मति को फेर दो।
गाया बहुत कुछ राग तुमने योग और वियोग का,
संचार कर दो अब यहाँ उत्साह का उद्योग का॥
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।
क्यों आज 'रामचरितमानस' सब कहीं सम्मान्य है?
सत्काव्य-युत उसमें परम आदर्श का प्राधान्य है॥
धैर्यच्युतों को धैर्य से कवि हो मिलाना जानते,
वे ही नितांत पराजितों को जय दिलाना जानते।
होते न पृथ्वीराज तो रहते प्रताप व्रती कहाँ?
एथेंस कैसे जीतता होता न यदि सोलन वहाँ?
संसार में कविता अनेकों क्रांतियाँ हैं कर चुकीं,
मुरझे मनों में वेग की विद्युत्प्रभाएँ भर चुकीं।
है अंध-सा अंतर्जगत कवि-रूप सविता के बिना,
सद्भाव जीवित रह नहीं सकते सु-कविता के बिना॥
भृत जाति को कवि ही जिलाते रस-सुधा के योग से,
पर मारते हो तुम हमें उलटे विषय के रोग से!
कवियो! उठो, अब तो अहो! कवि-कर्म की रक्षा करो,
बस नीच भावों का हरण कर उच्च भावों को भरो॥
नवयुवक
हे नवयुवाओ! देश भर की दृष्टि तुम पर ही लगी,
है मनुज जीवत की तुम्हीं में ज्योति सब से जगमगी।
दोगे न तुम तो कौन देगा योग देशोद्धार में?
देखो कहाँ क्या हो रहा है आज कल संसार में॥
जो कुछ पढ़ो तुम कार्य में भी साथ ही परिणत करो,
सब भक्तवर प्रह्लाद की निम्नोक्ति को मन में धरो-
कौमार में ही भागवत धर्माचरण कर लो यहाँ,
नर-जन्म दुर्लभ और वह भी अधिक रहता है कहाँ॥
दो पथ, असंयम और संयम है तुम्हें अब सब कहीं,
पहला अशुभ है, दूसरा शुभ है, इसे भूलो नहीं।
पर मन प्रथम की ओर ही तुमको झुकावेगा अभी,
यदि तुम न सँभलोगे अभी तो फिर न सँभलोगे कभी॥
धनी
धनियो! भला कब तक व्यसन को बान छोड़ोगे नहीं,
और कब तक अज्ञता की आन तोड़ोगे नहीं?
किं वा कृपण कब तक रहोगे लोभ को पाले हुए,
क्या तुच्छ धनवाले हुए तुम जो न मनवाले हुए?
कमला-विलास विलोल तर चपला-प्रकाश-समान है,
धन-लाभ का साफल्य बस सत्कार्य विषयक दान है।
हा! देश का उपकार करना अब तुम्हें कब आएगा?
विद्या, कला-कौशल बढ़ाओ, धन स्वयं बढ़ जाएगा॥
लाखों अपव्यय हैं तुम्हारे एक तो सद् व्यय करो,
चाहो न जो तुम कीर्ति तो अपकीर्ति का तो भय करो।
क्या मातृभूमि वृथा तुम्हारी विश्व में जननी बनी?
देते करोड़ों देश-हित हैं अन्य देशों के धनी॥
हम पुत्र तीस करोड़ जिसके देश वह दुःखी रहे;
अनुचित नहीं है फिर कहीं कोई हमें जो पशु कहे।
हे भाइयो! है दीन देखो, मातृ-भू माता मही,
जो बन पड़े जिससे यहाँ है इस समय थोड़ा वही॥
शिक्षा
सब से प्रथम कर्तव्य है शिक्षा बढ़ाना देश में,
शिक्षा बिना ही पड़ रहे हैं आज हम सब क्लेश में,
शिक्षा बिना कोई कभी बनता नहीं सत्पात्र है,
शिक्षा बिना कल्याण की आशा दुराशा मात्र है॥
जब तक अविद्या का अँधेरा हम मिटावेंगे नहीं,
जब तक समुज्ज्वल ज्ञान का आलोक पाएँगे नहीं।
तब तक भटकना व्यर्थ है सुखसिद्धि के संधान में,
पाए बिना पथ पहुँच सकता कौन इष्ट स्थान में?
वे देश जो हैं आज उन्नत और सब संसार से
चौंका रहे हैं नित्य सबको नव नवाविष्कार से।
बस ज्ञान के संचार से ही बढ़ सके हैं वे वहाँ,
विज्ञान-बल से ही गगन में चढ़ सके हैं वे वहाँ॥
विद्या मधुर सहकार करती सर्वथा कटु निंब को,
विद्या ग्रहण करती कलों से शब्द को, प्रतिबिंब को!
विद्या जड़ों में भी सहज ही डालती चैतन्य है,
हीरा बनाती कोयले को, धन्य विद्या धन्य है॥
विद्या दिनों का पथ पलों में पार है करवा रही,
विद्या विविध वैचित्र्य के भांडार है भरवा रही।
गति सिद्धि उसकी हो चुकी आकाश में, पाताल में,
है वह मरों को भी जिलाना चाहती कुछ काल में!
पाया हमीं से था कभी जो बीज वर विज्ञान का,
उसको दिया है दूसरों ने रूप रम्योद्यान का।
हम किंतु खो बैठे उसे भी जो हमारे पास था,
हा! दूसरों की वृद्धि में ही क्या हमारा ह्रास था!
राष्ट्रभाषा
है राष्ट्रभाषा भी अभी तक देश में कोई नहीं,
हम निज विचार जना सकें जिससे परस्पर सब कहीं।
इस योग्य हिंदी है तदपि अब तक न निज पद पा सकी,
भाषा बिना भावैकता अब तक न हममें आ सकी!
यों तो स्वभाषा-सिद्धि के सब प्रांत हैं साधक यहाँ,
पर एक उर्दू दाँ अधिकतर बन रहे बाधक यहाँ।
भगवान जाने देश में कब आएगी अब एकता,
हठ छोड़ दो हे भाइयो! अच्छी नहीं अविवेकता॥
स्त्री-शिक्षा
विद्या हमारी भी न तब तक काम में कुछ आएगी—
अर्धांग्नियों को भी सु-शिक्षा दो न जब तक जाएगी।
सर्वांग के बदले हुई यदि व्याधि पक्षाघात की—
तो भी न क्या दुर्बल तथा व्याकुल रहेगा वातकी?
समय की अनुकूलता
सुख-शांतिमय सरकार का शासन समय है अब यहाँ,
सुविधा समुन्नति के लिए हैं प्राप्त हमको सब यहाँ।
अब भी न यदि कुछ कर सके हम तो हमारी भूल है,
अनुकूल अवसर की उपेक्षा हूलती फिर शूल है॥
है ब्रिटिश शासन की कृपा ही यह कि हम कुछ जग गए,
स्वाधीन है हम धर्म में, सब भय हमारे भग गए।
निज रूप को फिर हम सभी कुछ-कुछ लगे हैं जानने-
निज देश भारतवर्ष को फिर हम लगे हैं मानने॥
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 143)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
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