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नयन पचासा

nayan pachaasa

मंडन

मंडन

नयन पचासा

मंडन

और अधिकमंडन

    श्री गुरु गुपाल पै सीख लै, गरें सुमिरिनी नाय।

    ‘कवि मंडन' गाढ़ैं गहे, रसिकराय के पाय॥

    ‘मंडन' राधा-क्रिसन के, मन धरि मदन बिलास।

    नवल नागरी नैंन पैं, दोहा किये पचास॥

    पेम-नखासे नागरी, हियें-तुरंग बिकात।

    लोइन तेरे लाहरी, ऊपर हीं लै जात॥

    छिन छिन भाव नये नये, ‘कवि मंडन' उर आनि।

    बरजें नैन मानहीं, लोक बेद की कानि॥

    डीठि-डोरि सों मन-कलस, काम-कुवा मैं डारि।

    नैंना तेरे नागरी, भरैं पेमरस-बारि॥

    नागरि चढ़ि तुव नैन-हय, झाँकि पूतरी-नारि।

    उमगि नेम-पारैं दई, पेम-कुवा मैं डारि॥

    काजर कैं मिस नागरी, चखनि चखौंड़ा देति।

    ‘मंडन' डीठि लगाइ कैं, औरनि को ज्यो लेति॥

    खरे डरारे चरपरे, कजरारे अमनैंक।

    नैन अन्यारे, नागरी, न्यारे करि जिनि नैंक॥

    तेरे नैननि नागरी, बिच कच काम दँदोरि।

    उरझायो मन बापुरो, ‘मंडन' रस की डोरि॥

    जे कछु टोने टामने, करे कामरू नारि।

    नागरि तेरे नैन पै, नोना चढ़ी चमारि॥

    मेहु-मदन बरसे रसहिं, ‘मंडन' पिय तन चाहि।

    नैन-पपीहा नागरी, ज्यो के प्यासे आहि॥

    नेह भरे रस सों पगे, मन-लाडू गिलि जात।

    नैना तेरे नागरी, तऊ नैक अघात॥

    दिये झुलाय दुलार सों, मन-पलना में मैन।

    नेह तिलौछे नागरी, लाल लाडिले-नैन॥

    नैन पारखी नागरी, तुरँग रसीले नैन।

    गूँगेई समुझैं भलें, गूँगे ही की सैन॥

    चुंबकमनि तुव नैन हैं, नागरि मेरे जान।

    ‘मंडन' मेरे चितु चुहकि, लाग्यो लोह समान॥

    नागरि मेरे जान तुव, कनक कसौटी नैन।

    पेम-हेम की लीक ज्यों, डोरे इनिमें ऐन॥

    कुटिल भौंह तुव नागरी, तिनि कछु सिखये नैन।

    तब लपटाने नेह के, अब लागे दुख दैन॥

    पेम पगे रस के सगे, मद रँगमगे बिसाल।

    नैन लगत तुव नागरी, ठौर ठगे नँदलाल॥

    पेम-पंथ तुव नैन-ठग, नागरि लेत बुलाइ।

    ‘मंडन’ बन्हन मनं कैं, मारहि मनहि भुलाइ॥

    नैन-मीन तुव नागरी, गहि कटाछ के जाल।

    ‘मंडन' मन-ढीमरु बँध्यो, पेम-सुधा कें ताल॥

    नागरि तेरे नैन-नट, चढ़ि कटाछ की डोरि।

    अरग थरग नाचैं निडर, तार तिरीछे तोरि॥

    ‘कवि मंडन' इक टक रहैं, बदन-चंद की ओर।

    बिरह आगि-अँगिरा चुगैं, नागरि नैन-चकोर॥

    ‘मंडन' जित जित जात हैं, तित तित छाँव लहैं न।

    हियो-लकरिया ले उड़े, हारिल-नागरि नैन॥

    मन घट्यो तन भिद्यो, ‘मंडन' गई हूक।

    नागरि नैन-कपोत क्यौं, हियो कियो द्वै टूक॥

    मोर तुरत आड़े उड़त, ऊँचे नीचे होत।

    गिरहबाज़ रस-गयन में, नागरि नैन-कपोत॥

    मंडन छिन छिन ठानि कै, आँखिन सों रति रारि।

    नागरि तुव लोइन-चिरा, नैकु मानें हारि॥

    हियो-पखेरू पेम-पथ, उड़त पावै चैन।

    झपटि लेत हैं बाज लौं, नागरि तेरे नैन॥

    हियो - बटाऊ पेम-पथ, पगु नहिं पावै दैन।

    गहि मारत हैं नागरी, पसिया तेरे नैन॥

    नैन-कचोरनि नागरी, भर्यो मैन-मद आहि।

    ‘कवि मंडन' मन छकि रह्यो, नैसक परसत जाहि॥

    नैन-चोर तुव नागरी, मन-मड़हा में पैठि।

    ‘मंडन’ ले सब नेह-निधि, रहे कोठहीं बैठि॥

    मन-कोठा सोयो मदनु, पैठि जगावत ईठ।

    ‘मंडन' नागरि नैन-जन, भये निपट ही ढीठ॥

    ‘मंडन' मन-चटसार में, चटिया बुरो अनंगु।

    नागरि तेरे नैन-गुरु, कहा सिखायो ढंगु॥

    मधुप ममोले मीन म्रिग, सुभग सरोज सँवारि।

    नागरि तेरे नैन पै, डारि दये बिधि वारि॥

    नलिन मलिन किये नागरी, तेरे लोइन लोल।

    अरु चकोर चेरे किये, लिये ममोले मोल॥

    दियो बयानो नागरी, नैक बिलोकि बिलोल।

    तुव लोइन ‘मंडन' हियो, मोल लियो बिनु मोल॥

    मदन चढ़्यो मो मन-तुरी, ‘मंडन' सजि सब सैन

    कोतल है नाँचत चले, नागरि तेरे नैन॥

    चढ़्यो नचावतु नागरी, चंचल नैन-अनंग।

    अजौं कहा कोतल रहे, तो मन-तरल तुरंग॥

    पेम-तिमिर कों नागरी, चसमा तेरे नैन।

    सब सूझे जब ये मिलैं, इन बिनु सूझतु है न॥

    मन-अहेरिया मारियौ, रस बस पेम-पहार।

    ढीठ भये तुव नागरी, द्विग-म्रिग करैं सिकार॥

    ‘मंडन' आवे आपुही, हृदय-पतंग समीप।

    नेह बढ़ावैं नागरी, नैना तेरे दीप॥

    नागरि तुव नैनन कियो, बाज़ीगर के आम।

    पान लगे, फूले, फरे, नेकु आयो काम॥

    नागरि, तेरे नैन-मुनि, नयो उपायो जोगु।

    देखत ही तारे लगे, बिरह कहत सब लोगु॥

    कामदेव को व्रत लियो, नेह-नदी में नाहि।

    तेरे नैननि नागरी, जीव दया कछु नाँहि॥

    पेम-जाल मो मन रच्यो, नागरि बहुत उपाय।

    कियो फँदा तुव नैन को, फँद्यो आपुहीं जाय॥

    कैसी है तुव नागरी, नैन-बान की रीति।

    मन मैं ‘मंडन' गड़ि रहें, तासौं इनसौं प्रीति॥

    सादे ‘मंडन' मन रहे, नागरि नैसिक जोहि।

    तुव लोइन अंजन धरें, लेहिं निरंजन मोहि॥

    जोबन के रे मद मते, अरु अलसाने जोर।

    घूमत नागरि नैन लखि, घूमत है मन मोर॥

    सुरझाये सुरझे नहीं, कासौं करौं निहोर।

    तुव नैननि की कोर में, उरझि रह्यो मनु मोर॥

    मदन-भूप के पारधी, नागरि तेरे नैन।

    जिनकै लीयै कछु नहीं, मन-कुरंग कों चैन॥

    ‘कवि मंडन' देख्यौ सुन्यौ, बधिकनि बध्यो कुरंग।

    नागरि तेरे नैन-मृग, बाध्यौ बधिक-अनंग॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंडन-ग्रंथावली (पृष्ठ 133)
    • संपादक : देवेंद्र
    • रचनाकार : मंडन
    • प्रकाशन : साहित्य संगम, इलाहाबाद
    • संस्करण : 1984

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