महारानी दुर्गावती
maharani durgawti
दुर्ग तैं तड़पि तड़िता सी तड़कैं हीं कढ़ी,
कड़कि न पाए कड़खाहूँ अबै मुरगा।
कहै रतनाकर चलावन लगी यौं बान,
मानौ कर फैले फुफुकारी मारि उरगा॥
आसा छाँड़ि प्रान की अपान की दुरासा माँड़ि,
भागे जात गब्बर अकब्बर के गुरगा।
देबी दुरगावती मलेच्छ-दल गेरे देति,
मानौ दैत्य-दलनि दरेरे देति दुरगा॥
देबी दुरगावती के धावत मलेच्छ-सेन,
फाटि चली फेन लौं रुकी ना हर कहु में।
कहै रतनाकर निहारे बहु संगर पै,
ऐसे रन-रंग ना बिचारे तरकहु में॥
चरबन चाहि जाहि आयौ चढ़ि आसफ़ ख़ाँ,
ताकी कठिनाई ना लखाई करकहु में।
एतौ रन-बिमुख मलेच्छनि-झमेला भर्यौ,
मेला भर्यौ माची ठेलठेला नरकहु में॥
दुर्ग तैं निकसि दुरगावतीं स्ववीर धीर,
फूँकि कै स्वतंत्रता कौ मंत्र ललकारे हैं।
कहै रतनाकर स्वदेस-हित ठानि तिनि,
मुग़ल-पठान-दल बद्दल बिदारे हैं॥
धावा करि आपहूँ जहाँ ही तहाँ कावा करि,
दावा करि अरि अरदावा करि पारे हैं।
मारे किते बान सौं कृपान सौं संघारे किते,
केते कुंत तानि कै उतान करि डारे हैं॥
रानी दुरगावती स्वतंत्रता की ठानी ठान,
देस-हित-हानी ना सुहानी छतरानी है।
कहै रतनाकर लखानी सस्त्र धारि,
अरि-दल मानी मैं भयंकर भवानी है॥
हेरत हिरानी लंतरानी सब आसफ़ की,
चलति कृपानी ना चलावत बिरानी है।
पानी सब मुख कौ उतरि हिय पानी भयौ,
पानी गयो तेग कौ बिलाइ दृग पानी है॥
दोष दुख दारिद सु चूरि दीनता कै दूरि,
भूरि सुख संपति सौं पूरि प्रजा पाली है।
कहै रतनाकर स्वतंत्रतानुरक्ति अरु,
देस-भक्ति थापी बाक-सक्ति सौं निराली है॥
पुनि कढ़ि दुर्ग तैं कृपान दुरगावति लै,
दुष्टनि पै रुष्ट ह्वै अपार वार घाली है।
धोखैं रहैं हेरत त्रिदेव जिय जोखैं यहै,
यह कमला है, कै गिरा है, किधौं काली है॥
जाकैं रन धावत प्रचारि तरबारि धारि,
धमकि धराधर समेत धरा धूजी है।
कहै रतनाकर उमंडि जिहिं ओर जाति,
ताही ओर लुंडमुंड होत झुंड मूजी है॥
देबी दुरगावती बजाइ सैफ़ आसफ़ सौं,
हर के हियै की हरषाइ हौंस पूजी है।
जोगिनी कहैं को यह जोगिनी नई है अहो,
चंडी कहै चंडी को प्रचंडी यह दूजी है॥
देस-प्रेम-पूरन कौं अरि-दल-चूरन कौं,
सूरनि गुहारि मंत्र-माया किए देति है।
कहै रतनाकर कृपान कुंत बान घालि,
अरिनि निकाय कौं निकाया किए देति है॥
मुंड-हीन-दीसत मलेच्छनि के झुंड झुंड,
मानहु चमुंड प्रतिछाया किए देति है॥
देबी दुरगावती दपेटि दुरगा लौं दौरि,
आसफ़ की सफ़ कौ सफ़ाया किए देति है॥
देबी दुरगावती कराल कालिका सी कोपि,
काल-बालिका सी रन तारी मारि पहुँची।
कहै रतनाकर जहाँ ही भीर भारी परी,
तमकि तहाँ ही किलकारी मारि पहुँची॥
जब सफ आसफ की अमित अपार महा,
ताहि गहिबे कौं सेन सारी मारि पहुँची।
फूटी आँखिहूँ ना तऊ म्लेच्छनि छटारी चही,
सरग-अटारी पै कटारी मारि पहुँची॥
- पुस्तक : रत्नाकर रचनावली
- संपादक : कमलाशंकर त्रिपाठी
- रचनाकार : जगन्नाथदास रत्नाकर
- प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ
- संस्करण : 2009
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