भारत-भारती / अतीत खंड / हमारी सभ्यता
hamari sabhyata
शैशव-दशा में देश प्राय: जिस समय सब व्याप्त थे,
निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे।
संसार को पहले हम ने ज्ञान-भिक्षा दान की,
आचार की, व्यवहार की, व्यापार की, विज्ञान की॥
'हाँ' और 'ना' भी अन्य जन करना न जब थे जानते,
थे ईश के आदेश तब हम वेदमंत्र बखानते।
जब थे दिगंबर रूप में वे जंगलों में घूमते,
प्रासाद-केतन-पट हमारे चंद्र को थे चूमते॥
जब मांस-भक्षण पर वनों में अन्य जन थे जी रहे,
कृषि-कार्य्य करके आर्य्य तब शुचि सोमरस थे पी रहे।
मिलता न यह सात्त्विक सु-भोजन यदि शुभविष्कार का,
तो पार क्या रहता जगत में उस विकृत व्यापार का?
था गर्व नित्य निजत्व का पर दंभ से हम दूर थे,
थे धर्म-भीरु परंतु हम सब काल सच्चे शूर थे।
सब लोक-सुख हम भोगते थे बांधवों के साथ में,
पर पारलौकिक-सिद्धि भी रखते सदा थे हाथ में॥
थे ज्यों समुन्नति के सुखद उत्तुंग श्रृंगों पर चढ़े,
त्यों ही विशुद्ध विनीतता में हम सभी से थे बढ़े।
भव-सिंधु तरने के लिए आत्मावलंबी धीर ज्यों,
परमार्थ-साधन हेतु थे आतुर परंतु गभीर त्यों॥
यद्यपि सदा परमार्थ ही में स्वार्थ थे हम मानते,
पर कर्म से फल-कामना करना न हम थे जानते।
विख्यात जीवन-व्रत हमारा लोक-हित एकांत था,
'आत्मा अमर है, देह नश्वर,' यह अटल सिद्धांत था॥
हम दूसरों के दुःख को थे दुःख अपना मानते,
हम मानते कैसे नहीं, जब थे सदा यह जानते-
'जो ईश कर्त्ता है हमारा दूसरों का भी वही,
हैं कर्म्म भिन्न परंतु सबमें तत्त्व-समता हो रही॥
बिकते गुलाम न थे यहाँ, हममें न ऐसी रीति थी,
सेवक-जनों पर भी हमारी नित्य रहती प्रीति थी।
वह नीति ऐसी थी कि चाहे हम कभी भूखे रहें,
पर बात क्या, जीते हमारे जो कभी वे दुख सहें॥
अपने लिए आज हम क्यों जी न सकते हों यहाँ,
पर दूसरों ही के लिए जीते जहाँ थे हम जहाँ।
यद्यपि जगत में हम स्वयं विख्यात जीवन-मुक्त थे,
करते तदपि जीवन्मृतों को दिव्य जीवन-युक्त थे॥
थी दूसरों की आपदाहरणार्थ अपनी संपदा,
कहते नहीं थे किंतु हम करके दिखाते थे सदा।
नीचे गिरे को प्रेम से ऊँचा चढ़ाते थे हमीं,
पीछे रहे को घूम कर आगे बढ़ाते थे हमीं॥
संयम-नियम-पूर्वक प्रथम बल और विद्या प्राप्त की,
होकर गृही फिर लोक की कर्तव्य रीति समाप्त की।
हम अंत में भव-बंधनों को थे सदा को तोड़ते,
आदर्श भावी सृष्टिहित थे मुक्ति-पथ में छोड़ते॥
हमको विदित थे तत्त्व सारे नाश और विकाश के,
कोई रहस्य छिपे न थे पृथ्वी तथा आकाश के!
थे जो हज़ारों वर्ष पहले जिस तरह हमने कहे,
विज्ञान-वेत्ता अब वही सिद्धांत निश्चित कर रहे॥
है हानिकारक नीति निश्चय निकटकुल में ब्याह की,
है लाभकारक रीति शव के गाड़ने से दाह की”।
यूरोप के विद्वान भी अब इस तरह कहने लगे!
देखो कि उलटे स्रोत सीधे किस तरह बहने लगे!॥
निज कार्य्य प्रभु की प्रेरणा ही थे नहीं हम जानते,
प्रत्युत उसे प्रभु का किया ही थे सदा हम मानते।
भय था हमें तो बस उसी का और हम किससे डरे?
हाँ, जब मरे हम तब उसी के प्रेम से विह्वल मरे॥
था कौन ईश्वर के सिवा जिसको हमारा सिर झुके?
हाँ, कौन ऐसा स्थान था जिसमें हमारी गति रुके?
सारी धरा तो थी धरा ही, सिंधु भी बँधवा दिया;
आकाश में भी आत्म-बल से सहज हो विचरण किया॥
हम बाह्य उन्नति पर कभी मरते न थे संसार में,
बस मग्न थे अंतर्जगत के अमृत-पारावार में।
जड़ से हमें क्या, जब कि हम थे नित्य चेतन से मिले,
हैं दीप उनके निकट क्या जो पद्म दिनकर से खिले?
रौंदी हुई है सब हमारी भूमि इस संसार की,
फैला दिया व्यापार, कर दी धूम धर्म प्रचार की।
कप्तान 'कोलम्बस' कहाँ था उस समय, कोई कहे?
जब के सु-चिह्न अमेरिका में हैं हमारे मिल रहे॥
हम देखते फिरता हुआ जोड़ा न जो दिन-रात का-
करते कहीं वर्णन भला फिर किस तरह इस बात का?
हम वर-वधू की भाँवरों से साम्य उसका कर चुके,
अब खोजने जाकर जिसे कितने विदेशी मर चुके!
आरंभ जब जो कुछ किया हमने उसे पूरा किया,
था जो असंभव भी उसे संभव हुआ दिखला दिया।
कहना हमारा बस यही था विघ्न और विराम से-
करके हटेंगे हम कि अब मर के हटेंगे काम से॥
यह ठीक है, पश्चिम बहुत ही कर रहा उत्कर्ष है,
पर पूर्व-गुरु उसका यही पुरु वृद्ध भारतवर्ष है।
जाकर विवेकानंद-सम कुछ साधु जन इस देश से,
करते उसे कृतकृत्य हैं अभी अतुल उपदेश से॥
वे जातियाँ जो आज उन्नति-मार्ग में हैं बढ़ रहीं,
सांसारिकी स्वाधीनता की सीढ़ियों पर चढ़ रहीं।
यह तो कहें, यह शक्ति उनको प्राप्त कब कैसे हुई?
यह भी कहें वे दार्शनिक चर्चा वहाँ ऐसे हुई॥
यूनान ही कह दे कि वह ज्ञानी-गुणी कब था हुआ?
कहना न होगा, हिंदुओं का शिष्य वह जब था हुआ।
हमसे अलौकिक ज्ञान का आलोक यदि पाता नहीं,
तो वह अरब-यूरोप का शिक्षक कहा जाता नहीं॥
संसार भर में आज जिसका छा रहा आतंक है,
नीचा दिखा कर रूस को भी जो हुआ निःशंक है।
जयपाणि जो वर्द्धक हुआ है एशिया के हर्ष का,
है शिष्य वह जापान भी इस वृद्ध भारतवर्ष का॥
यूरोप भी जो बन रहा है आज कल मार्मिक मना,
यह तो कहे उसके खुदा का पुत्र कब धार्म्मिक बना?
था हिंदुओं का शिष्य ईसा, यह पता भी है चला,
ईसाइयों का धर्म्म भी है बौद्ध साँचे में ढला॥
संसार में जो कुछ जहाँ फैला प्रकाश-विकास है,
इस जाति की ही ज्योति का उसमें प्रधानाभास है
करते न उन्नति-पथ परिष्कृत आर्य्य जो पहले कहीं,
संदेह है, तो विश्व में विज्ञान बढ़ता या नहीं॥
अनमोल आविष्कार यद्यपि हैं अनेकों कर चुके,
निज नीति, शिक्षा, सभ्यता की सिद्धि का दम भर चुके।
पर पीटते हैं सिर विदेशी आज भी जिस शांति को,
थे हम कभी फैला चुके उसकी अलौकिक कांति को॥
है आज पश्चिम में प्रभा जो पूर्व से ही है गई,
हरते अँधेरा यदि न हम होती न खोज नई-नई।
इस बात की साक्षी प्रकृति भी है अभी तक सब कहीं,
होता प्रभाकर पूर्व से ही उदित, पश्चिम से नहीं॥
अंतिम प्रभा का है हमारा विक्रसी संवत् यहाँ,
है किंतु औरों का उदय इतना पुराना भी कहाँ?
ईसा, मुहम्मद आदि का जग में न था तब भी पता,
कब की हमारी सभ्यता है, कौन सकता है बता?॥
सर्वत्र अनुपम एकता का इस प्रकार प्रभाव था-
थी एक भाषा, एक मन था, एक सबका भाव था।
संपूर्ण भारतवर्ष मानों एक नगरी थी बड़ी,
पुर और ग्राम-समूह-संस्था थी मुहल्लों की लड़ी॥
हैं वायु-मंडल में हमारे गीत अब भी गूँजते,
निर्झर, नदी, सागर, नगर, गिरि, वन सभी हैं कूजते।
देखो, हमारा विश्व में कोई नहीं उपमान था,
नरदेव थे हम, और भारत? देव-लोक समान था॥
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 16)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
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