श्रीकृष्ण-सिद्धांत पंचाध्यायी
shriikrish.na-siddhaa.nt pa.nchaadhyaayii
जै जै जै श्रीकृष्ण रूप गुन कर्म अपारा।
परम धाम जग धाम परम अभिराज उदारा॥
आगम निगम पुराण स्मृती गन जे इतिहासा।
अवर सकल विद्या विनोद जिहि प्रभुक उसासा॥
रूप, गंध, रस, शब्द, (स्पर्श) जे पंच विषय वर।
महाभूत पुनि पंच पवन पानी अंबर धर॥
दस इंद्रिय अरु अहंकार महं तत्व त्रिगुन मन।
यह सब माया बर विकार कहें परमहंस मन॥
सो माया जिनकै अधीन नित रहत मृगी जस।
विश्व-प्रभव-प्रतिपाल-प्रलय कारक आरसु-बस॥
जागृति स्वप्न सुषुप्ति धाम पर-ब्रह्म प्रकासें।
इंद्रियगन, मन, प्रान इनहिं परमातम भासें॥
षटगुन अरु अवतार धरन नारायन जोई।
सबकौं आश्रय अवधि भूत नंदनंदन सोई॥
शिशु कुमार पौगंड धर्म पुनि वलित ललित लस।
धर्मी नित्य किशोर नवल चितचोर एकरस॥
जे जग में जगदीस कहै अति रहे गर्व भरि।
सब कर कियौ निरोध अपुन निज सहज खेल करि॥
महा-मोहनी-मय माया मोहे तिरसूली॥
कोटि-कोटि ब्रह्मांड निरखि बिधि हूं गति भूली॥
महाप्रल को जल बल लै गिरि पर बरस्यौ हरि।
न जनों गरब-गिरि तें गिरि कत गयौ धूरि मूरि ररि॥
ब्रह्मादिक का जीति महामद मदन भरपौ जब।
दप्प-दलन नंद-ललन रास-रास प्रगट कर्यौ तब॥
अवधि-भूत गुन रूप नाद तर्जन जहं होई।
सब रस को निर्त्तास रास रस कहिए सोई॥
ननु विपरीत धरम यह परम सुंदर परसन करि।
कवन धर्म रखवारो अनुसर जीव सदृश हरि॥
काल-कर्म-माया-अधीन ते जीव बखानें।
विधि-निषेध अरु पाप पुन्य तिन में सब साने॥
परम धरम परब्रह्म ज्ञान विज्ञान प्रकासी।
ते क्यों कहिए जीव-सदृश प्रति शिखर-निवासी॥
कर्म काल अनिमादि योगमाया के स्वामी।
ब्रह्मादिक की टांत जीव सर्वांतरजामी॥
शब्द-ब्रह्म-मय बेनु बजाय सबै जन मोहे।
सुर-नर-गन गंधर्व कछु न जानैं हम को हैं॥
धर्म, अर्थ अरु काम कर्म इह निगम निदेसा।
सब परिहरि हरि भजति भई करि बड़ा उपदेसा॥
प्रीतम सूचक शब्द सुनत जब अति रति बाढ़ै।
होत सहज सब त्याग नाग जिमि कंचुकि छांड़ै॥
कृष्ण तुष्ट करि कर्म करै जो आन प्रकारा।
फल बिभचार न होइ होइ सुख परम अपारा॥
ज्ञान बिना नहिं मुकति इह जू पंडित गन गायो।
गोपिन अपनो प्रेम-पंथ न्यारोइ दिखरायो॥
ज्ञान आतमानिष्ट गुनत यों आतमगामी।
कृष्ण अनावृत परम ब्रह्म परमातम स्वामी॥
नाहिंन कछु श्रृंङ्गार कथा इहि पंचाध्याई।
सुंदर अति निरवृत्त परा ते इती बड़ाई॥
अनाकृष्ट मन कृष्ण दुष्ट-मद-हरन पियारे।
जहं जहं उज्जल परम धरम ताके रखवारे॥
धर्म अर्थ पर बचन कहे ते काहे तें इत।
ब्रज देविन के शुद्ध प्रेम रस प्रगट करन हित॥
अरु जे शास्त्र-निपुन जन ते सब करहिं तुमहिं रति।
तुम अपने आतमा नित्य-प्रिय नित्य परमगति॥
ब्रह्मादिक जा चितवनि लगि नित सेव करी है।
सो लक्ष्मी सब छांड़ि तिहारै पांइ परी है॥
तैसेहि हम सब छांड़ि तिहारे चरननि आईं।
नहिंन तजौ, पिय भजौ, तजौ ए सब निठुराई॥
सुनि गोपिन के प्रेम-बचन हंसि परे भरे रस।
जदपि आत्माराम रमन भए नवल नेह बस॥
अलक पलक की ओट कोटि जुग सम जिन जाहीं।
तिन कहुं पल छिन ओट कोट दुख गनना नाहीं॥
कृष्णविरह नहिं बिरह-प्रेम उच्छलन कहावै।
निपट परम सुख-रूप इतर सब दुख बिसरावै॥
जब जब जो उद्गार होइ अति प्रेम विध्वंसक।
सोइ सोइ करें निरोध गोप-कुल केलि-उतंसक॥
नहिं कछु इंद्रियगामी कामी कामिनि कै बस।
सव घट अंतरजामी स्वामी परम एक रस॥
नित्य, आतमानंद, अखंड स्वरूप, उदारा।
केवल प्रेम सुगम्य अगम्य अवर परकारा॥
जैसोइ कृष्ण अखंड-रूप चिद्रूप उदारा।
तैसोइ उज्जल रस अखंड तिन कर परिवारा॥
जदपि अखंडानंद नंदनंदन ईश्वर हरि।
तदपि महाछबि पाइ छबीली ब्रज देविन करि॥
- पुस्तक : अष्टछाप कवि : नंददास (पृष्ठ 67)
- संपादक : सरला चौधरी
- रचनाकार : नंददास
- प्रकाशन : प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
- संस्करण : 2006
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