अकाल वर्णन
akal warnan
भय भीत परि दुरभक्ष।
प्रज बिचलि चलिय प्रत्यक्ष॥
प्रगट्यौ सु प्रलय प्रचंड।
खरहरिय क्षिति नव खंड॥
नद नदिय सर सुखि नीर।
धनवंत हूं तजि धीर॥
तुलि अन्न कंचन तोल।
महआघ मिलत न मोल॥
उत्तमहु तजि आचार।
आदरिय एकाकार॥
शुचि साच सत संतोष।
टुरि गए अन्नहि दोष॥
बल बुद्धि बिनय विवेक।
कुल जाति पांति सु टेक॥
परहरिय निय परिवार।
लागंत अन्नहि लार॥
सगपन सयान सु गेह।
नर नारि हूं तजि नेह॥
बिन अन्न जग बिललंत।
भूखेति अभख भखंत॥
उलटे बराक अनंत।
चहुं बरन दीन चवंत॥
गृह गृहनि ग्रास उच्छिष्ट।
अति अरस बिरस अनिष्ट॥
मांगत कहि मा बाप।
कुननंत करत कलाप॥
दारिद्र तनु दुरवेश।
कश्चित रु बढ़ि नख केश॥
हिल्हरित पट लटकंत।
जन-जन सु जिन्ह हटकंत॥
कर मध्य खप्पर खंड।
वपु हीन क्षीन वितंड॥
भिननंत मक्खी भूरि।
चित चलित चिंता पूरि॥
जहँ जुरत कछु तहँ खात।
तजि वर्ग भात रु तात॥
फल फूल मूल रु पात।
तरु छालि हू न रहात॥
ररबरत लोक बराक।
खोजंत भाती साक॥
मन निठुर करि पिय मात।
लहु बाल तजि जात॥
केईस विक्रय करंत।
निज बाल तजत रुदंत॥
परि पुहवि रंक करंक।
को गिनति कहि करि अंक॥
दिशि विदिशि बढ़ि दुर्व्बास।
पलचरनि पूरिय आस॥
पशु पंखि प्रलय प्रजंत।
चुग चार हू न लहंत॥
मानसहि मानस लग्गि।
जहँ-तहँ सुरोरति जग्गि॥
इल नगर पुर उज्झंस।
नर जात बहु निर्वंस॥
मुरझंत जल बिनु मीन।
त्यों विश्व अन्न विहीन॥
- पुस्तक : राजविलास (पृष्ठ 137)
- संपादक : भगवानदीन
- रचनाकार : मान कवि
- प्रकाशन : नागरीप्रचारिणी सभा, काशी
- संस्करण : 1912
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