उतरि पलँग तें न दियो हैं धरा पै पग
utri pala.ng te.n n diyo hai.n dhara pai pag
उतरि पलँग तें न दियो हैं धरा पै पग तेऊ सगबग निसिदिन चली जाती हैं।
अति अकुलातीं मुरझातीं न छिपातीं गात बात न सोहाती बोले अति अनखाती हैं।
भूषन भनत सिंह साहि के सपूत सिवा तेरी धाक सुने अरि नारी बिललाती हैं।
जोन्ह में न जातीं ते वै धूपै चली जाती पुनि तीन बेर खातीं तेवै तीन बेर खाती हैं॥
कवि भूषण कहते हैं कि जिन शत्रु-पक्ष की नारियों ने कभी पलंग से उतरकर धरती पर पैर तक नहीं रखा था, वे ही नारियाँ अब वीर शिवाजी के भय से रात-दिन अपनी प्राण-रक्षा हेतु सकपकाकर अस्त-व्यस्त रहती हैं। अर्थात् वे रात-दिन दौड़ी चली जाती हैं। शिवाजी के भय से अत्यंत व्याकुल होने के कारण उनके मुख मुरझा गए हैं और वे अपने प्राण बचाने की चिंता में अपने वस्त्रों का भी ध्यान नहीं रख पाती हैं। किसी को भी किसी की बात नहीं सुहाती है। यदि उनसे कोई बोलता है तो वे चिढ़-सी जाती हैं, उस पर झुँझला उठती हैं तथा सदा ही भूखी रहती हैं। भूषण कवि कहते हैं कि शाहजी के सुपुत्र महाराज शिवाजी आपके पराक्रम की गाथाओं को सुनकर शत्रु-पक्ष की स्त्रियाँ बिलबिलाती हैं। जो इतनी कोमल थीं कि चंद्रमा की चाँदनी में भी बाहर नहीं निकलती थीं वे ही अब अपने प्राणों की रक्षा के भय से धूप में दौड़ती हुई चली जाती हैं। उनमें से कोई तो आत्म-हत्या करने के लिए तैयार हैं और अनेक छाती पीट-पीटकर रो रही है।
- पुस्तक : भूषण ग्रंथावली (पृष्ठ 211)
- संपादक : आचार्य विश्वानाथ प्रकाशन मिश्र
- रचनाकार : भूषण
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2017
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