दूब दधि रोचना कनक-थार भरि-भरि
doob dadhi rochna kanak thaar bhari bhari
दूब दधि रोचना कनक-थार भरि-भरि,
आरती सँवारि बर नारि चलीं गावतीं।
लीन्हें जयमाल कर-कंज सौहैं जानकी के,
'पहिराओ राघोजू को' सखियाँ सिखावतीं॥
तुलसी मुदित मन जनक-नगर जन,
झाँकती झरोखे लागीं सोभा रानी पावतीं।
मनहुँ चकोरी चारु बैठीं निज-निज नीड़,
चंद की किरन पीवैं, पलकैं न लावतीं॥
सुंदरी स्त्रियाँ सोने के थाल में दूब, दही और रोली भर-भरकर आरती सजाकर गाती हुई चलीं। जानकी के करकमल जयमाला लिए हुए सुशोभित हो रहे हैं। सखियाँ उन्हें सिखला रही हैं कि (यह जयमाला) श्री रामचंद्रजी को पहनाओ। तुलसीदास कहते हैं कि उस समय जनकपुरवासी प्रसन्न-चित्त थे और झरोखे से झाँकती हुई (सुनयना इत्यादि) रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो सुंदर चकोरियाँ अपने-अपने घोंसलों में बैठी हुई अपलक नेत्रों से चंद्र-किरण पान कर रही हों।
- पुस्तक : कवितावली (पृष्ठ 13)
- संपादक : देवीनारायण द्विवेदी
- रचनाकार : तुलसीदास
- प्रकाशन : एस.बी.सिंह, काशी-पुस्तक-भंंडार, बनारस
- संस्करण : 1999
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