चोरी रही मन में ठगोरी रूप ही में रही
chori rahi man mein thagori roop hi mein rahi
चोरी रही मन में ठगोरी रूप ही में रही नाहीं तौ रही है एक मानिनी के मान में।
केस में कुटिलताई नैन में चपलताई भौंह में बँकाई हीनताई कटियान में।
भूषन भनत पातसाही पातसाहन में, तेरे सिवराज राज अदल जहान में।
कुच मे कठोरताई रति में निलजताई छाँड़ि सब ठौर रही आइ अबलान में॥
कवि भूषण वर्णन करते हुए कहते हैं कि शिवाजी के शासन में कहीं भी चोरी नहीं होती है, केवल मन की चोरी होती है। कहीं पर भी ठग-विद्या नहीं चलती है, केवल रूप-सौंदर्य की ही मोहिनी चलती है। उनके राज्य में दान देने में कोई ‘नहीं-नहीं’ नहीं करता, केवल मानिनी नायिकाएँ ही मान में ‘नहीं-नहीं’ करती हैं। इसी प्रकार किसी के आचरण में अस्थिरता नहीं है, केवल नेत्रों में चंचलता है। जनता के व्यवहार में टेढ़ापन नहीं है, केवल भौंहों में ही व्रकता है। धन-वैभव और आचरण में हीनता नहीं है, केवल सुंदरियों के कटि भागों में ही पतलापन (कृशता) है। कवि भूषण कहते हैं कि इसी प्रकार किसी का पतन नहीं होता है, केवल मुग़ल बादशाहों का ही पतन होता है। हे शिवाजी! आपके न्यायपूर्ण शासन या राज में संसार में कठोरता का व्यवहार कोई नहीं करता है, केवल नायिकाओं के स्तनों में ही कठोरता रहती है। इसी प्रकार कहीं पर कोई निर्लज्ज आचरण नहीं करता है, केवल रति-क्रीड़ा में अबलाओं में निर्लज्जता रहती है।
- पुस्तक : भूषण ग्रंथावली (पृष्ठ 223)
- संपादक : आचार्य विश्वानाथ प्रकाशन मिश्र
- रचनाकार : भूषण
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2017
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