चंचला चमाकैं चहूँ ओरन तें चाह-भरी
chanchala chamakain chahun oran ten chah bhari
चंचला चमाकैं चहूँ ओरन तें चाह-भरी,
चरजि गयी ती फेरि चरजन लागी री।
कहै ‘पद्माकर’ लवंगन की लोनी लता,
लरज गयी ती फेरि लरजन लागी री॥
कैसे धरौं धीर बीर त्रिविध समीरैं तन,
तरज गयीं ती फेरि तरजन लागी री।
घुमड़ि घमंड घटा घन की घनेरी अबै,
गरजि गयी ती फेरि गरजन लागी री॥
चारों ओर बिजलियाँ चाह से भरकर चमकने लगीं तो लगातार चमकती ही जा रही हैं। कवि पद्माकर कहते हैं कि लौंग की सुकुमार लताएँ जब एक बार कंपित होने लगीं, तो फिर निरंतर कंपायमान हो रही हैं तथा उनका हिलना-झूलना लगतार चल रहा है। ऐसे में नायिका नायक को लक्ष्य करके कहने लगी कि हे प्रियतम, ऐसे मनोरम समय में मैं कैसे धैर्य धारण करूँ? क्योंकि अब शीतल, मंद एवं सुगंधित—तीनों तरह की हवाएँ मेरे शरीर को कंपित एवं भयभीत कर रही हैं और अब ये तीनों हवाएँ निरंतर बढ़ती हुई वियोग-वेदना से ग्रस्त मेरे शरीर को कंपित कर रही हैं। अब बादलों की गर्वीली घटा उमड़-घुमड़कर गरजने लग गईं, तो फिर लगातार गरज-तरज रही हैं, अर्थात निरंतर गर्जना करती हुई मुझे व्यथित कर रही हैं।
- पुस्तक : पद्मावत पंचामृत (पृष्ठ 159)
- संपादक : विश्वनाथप्रसाद मिश्र
- रचनाकार : पद्माकर
- प्रकाशन : श्री रामरत्न पुस्तक भवन, काशी
- संस्करण : 1992
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