आज बरसाने की नबेली अलबेली बधू
aaj barsane ki nabeli albeli badhu
आज बरसाने की नवेली अलबेली बधू,
मोहन बिलोकिबे को लाज-काज ल्वै रही।
छज्जा-छज्जा झाँकती झरोखनि-झरोखनि ह्वै,
चित्रसारी-चित्रसारी चंद-सम व्वै रही॥
कहै ‘पद्माकर’ त्यों निकसो गोबिंद ताहि,
जहाँ-तहाँ इक टक ताकि घरी द्वै रही।
छज्जा वारी छकी-सी उझकी-सी झरोखावारी,
चित्र कैसी लिखी चित्रसारीवारी ह्वै रही॥
श्रीकृष्ण गोकुल से बरसाना आने वाले हैं। उन्हें देखने के लिए बरसाने की अलबेली सुंदरियों तथा नवेली वधुओं ने अपनी सारी लज्जा और घर के कामों को भी छोड़ दिया है। वे सभी सुंदरियाँ प्रत्येक छज्जे पर और प्रत्येक झरोखे से झाँकने लगती हैं। बरसाने की चित्रशालाएँ उन सुंदरियों की उपस्थिति से साकार चित्रलिखित-सी होकर चंद्रमा के समान मनोरम लग रही हैं। कवि पद्माकर कहते हैं कि इतने में ज्यों ही श्रीकृष्ण उस मार्ग से निकले, तो वे सुंदरियाँ दो घड़ी तक सब स्थानों से एकटक श्रीकृष्ण की रूप-छवि को निहारती रही। उस समय छज्जे पर से देखने वाली सुंदरियाँ विमुग्ध-सी होकर श्रीकृष्ण को देखती रहीं, तो झरोखे वाली सुंदरियाँ उझक-उझक कर देखने लगीं। चित्रशाला से देखने वाली अलबेली सुंदरियाँ चित्र-लिखित की भाँति अपने ही स्थानों से हिलडुल नहीं सकीं और श्रीकृष्ण के रूप-दर्शनों से वे अपना अस्तित्व भी भूल गईं।
- पुस्तक : पद्मावत पंचामृत (पृष्ठ 192)
- संपादक : विश्वनाथप्रसाद मिश्र
- रचनाकार : पद्माकर
- प्रकाशन : श्री रामरत्न पुस्तक भवन, काशी
- संस्करण : 1992
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