अगम, अपार, जाकी महिमा कौं पारावार
agam, apar, jaki mahima kaun parawar
अगम, अपार, जाकी महिमा कौं पारावार,
सेवै बार बार परिवार सुरपति कौं।
धाता कौं बिधाता, भाव-भगति सौं राता, दैव
चारि बर दाता, दानि जाता को सुपक्ति कौं॥
तीनि लोक नाइक है, बेद गुन गाइ कहै,
सरन सहाइक है सदा सेनापति कौं।
जगत कौं करता है, धराहू कौं धरता है,
कमला कौं भरता है हरता बिपति कौं॥
ईश्वर की महिमा रूपी समुद्र अगम और अपार है। कोई उसकी महिमा पूरी तरह जान नहीं पाता, उसकी महिमा का पार नहीं प्राप्त कर पाता। सुरपति यानी इंद्र बार-बार उसकी सेवा करता है। वह ईश्वर धारण करने या पालन करने वाले का भी विधाता है। वह भाव-भक्ति से प्रसन्न होता है। वह देवताओं को चार वर देने वाला है। वह दान देने वालों का भी मालिक है। वह तीनों लोकों का स्वामी है। वेदों में जितने भी गुण बतलाए गए हैं वे सब उसमें हैं अथवा वेद उसी के गुणों का गान करते हैं। वह शरण में आने वाले का सहायक है। सेनापति कहते हैं कि मेरी तो वह सदा ही सहायता करने वाला है। वह जगत का रचने वाला है, धरती को धारण करने वाला है। वह लक्ष्मी का पति और सबकी विपत्ति दूर करने वाला है।
- पुस्तक : कवित्त रत्नाकर (पृष्ठ 97)
- रचनाकार : सेनापति
- प्रकाशन : हिंदी परिषद् प्रकाशक, प्रयाग
- संस्करण : 1971
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