असंख्य ज़ंजीरें थीं सब तरफ़
उनमें से कभी टूट जाती थी कोई ज़ंजीर तो मच जाता था तहलका
कभी-कभी ऐसा भी होता था कि उस तरफ़ नहीं जाता था किसी का ध्यान
फिर स्वप्न में या अचानक किसी गली से गुज़रते हुए आता था याद
कि न जाने कब टूट गई वहाँ पड़ी हुई एक ज़ंजीर
गाहे-बगाहे कोई विद्वान या कवि बताता था कि वह एक भारी ज़ंजीर थी
जो काटी गई एक शब्द की धार से
और ऐसी ही एक ज़ंजीर को काटा था एक आदमी ने
अपनी पूरी ज़िंदगी की दराँती से
इस काम में उसे लगे थे चौहत्तर साल
जिसका थोड़ा-बहुत हिसाब मिल सकता है किसी संग्रहालय में
मगर ज़ंजीरें लोगों के जीवन में इस तरह थीं जैसे शरीर में आँतें
उनके कट जाने पर उन्हें घेर लेती थीं पेचिश और वमन जैसी बीमारियाँ
वे तड़पते थे उन काट दी गईं ज़ंजीरों की स्मृति में
और उनकी हाहाकारी कराहों ने
भर दिया था समय की संभव शांति को एक स्थायी शोर से
अक्सर होता था कि ज़ंजीरों को काटने की कोशिश में
उनकी भारी कड़ियाँ गिर पड़ती थीं हमारे माथों पर
माथे पर पड़ उन निशानों से पहचान लिए जाते थे हम
अपने लोगों के बीच
बाक़ी दूसरे समझते थे कि ये निशान यों ही लड़ाई-झगड़े के हैं
या कहीं गिर पड़ने के
इन वजहों से भी मुमकिन होता था कि ज़ंजीरें काटी जा रही थीं
थोड़ी-थोड़ी रोज़-रोज़
यह भी दिलचस्प था कि कुछ पाठ शामिल कर दिए गए थे
बच्चों की किताबों में
जिनमें बताए गए थे ज़ंजीरों को काटने के सैद्धांतिक तरीक़े
मगर बच्चों की मुश्किल यह थी कि ज़ंजीरों के साथ जीने की कला
के बारे में भी कुछ किताबें थीं पाठ्यक्रम में
इस तरह ज़ंजीरों की प्रतिष्ठा ने लगभग अटूट कर दिया था ज़ंजीरों को
वे आभूषणों की तरह हो गई थीं
कुछ संस्कारों की तरह थीं और पवित्र बंधनों की तरह चिपकी थीं त्वचा से
लगता था उन्हीं ने थाम रखा है संसार
वे हमारी सभ्यता का चेहरा हो गई थीं
चौखट पर ही देखा जा सकता था उन्हें पड़ा हुआ
हमारे ज़रा-से उत्खनन से ही प्रकट होने लगती थीं वे
हमारे ही भीतर से अपने भारी और ज़ंग लगे रूप में निकलती हुईं
उनकी खन्-खन् की आवाज़ें एक समूह को भर देती थीं ख़ुशी से
और एक दूसरे समूह को भय से
और यह प्रक्रिया तब्दील हो चुकी थी सामाजिक विकास की प्रक्रिया में
वे लताओं की तरह उगती थीं और बरसों बाद
यकायक पता चलता कि वे लताएँ नहीं ज़ंजीरें हैं
मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती थी
और अमूमन हम पड़ चुके होते थे उनके प्रेम में
फिर सब मिलकर करते थे उनकी रक्षा
हर घर में उनके उत्पादन के कारख़ाने थे
किसी भी धातु की बन जाती थीं वे
उन धातुओं की भी जिनका कोई ज़िक्र नहीं धातु-विज्ञान में
वे अजीवित थीं मगर उनमें विलक्षण क्षमता थी भक्षण और प्रजनन की
टेपवॉर्म की तरह हमारे अंतरों-कोनों में चिपकी हुईं
वे अतृप्त अनंत भूख की स्वामिनें
खाती हुईं हमारा पचा हुआ अन्न
उन्हें पहचान लेना कठिन न था
लेकिन उन्हें उनके असली नामों से पुकारना अपराध था
उनके असली नाम यों भी अलौकिक थे और हमारी भाषा के
सुंदरतम शब्दों को घेर रखा था उन्होंने
उनके स्कूल थे उनके दफ़्तर थे
और सबसे मज़ेदार और हतप्रभ कर देने वाली बात थी कि
उनके पास ऐसे विचार थे
जो विचार नहीं थे मगर स्वीकृत थे विचारों की तरह उसी शाश्वत जनता में
जो ज़ंजीरों को उनके अलौकिक नामों से जानती थी
और उनमें जकड़ी हुई हँसती-रोती थी
उसके हँसने-रोने की आवाज़ों में दब जाती थीं ज़ंजीरों की आवाज़ें
जो घंटियों, चीखों, अंतिम पुकारों, हकलाहटों, प्रार्थनाओं
की तरह सुनाई देती थीं
और उनमें छिपे आर्तनाद से व्यथित कुछ लोग आख़िर
अपनी-अपनी आरियाँ लेकर जुट जाते थे ज़ंजीरों को काटने में
और बार-बार अपने लिए बनाते थे ऐसी आज़ाद जगहें
जहाँ रह सकते थे ऐसे कई लोग और भी
जिन्हें पूरी उम्र काटते ही जाना था हर रोज़
काई की तरह फैलती हुई ज़ंजीरों को।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 63)
- रचनाकार : कुमार अम्बुज
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2014
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