अक्सर नानी सुनाती थी कहानी
नीलकंठ की
संसार-संरक्षण हेतु सब ज़हर रखा अपने कंठ
तब कहलाए नीलकंठ
कैसी हुई होगी अनुभूति गले में ज़हर रखने का
कच्चे अमरूद, कसैला जामुन, नानी की सुपाड़ी खा कुछ हद तक महसूसा था
लगा जैसे तोड़ दिया किसी ने कंठ-छाती के बीच का पुल
अक्सर नानी कहती—बीड़ी वाली बुढ़िया है ज़हर
मेरी भी कुछ इच्छा थी
ज़हर बनने की
कि रह सकूँ नीलकंठ के कंठ
कुछ धुँधला-सा पहली बार चखा था स्वाद ज़हर का
पड़ोसी निरंजनमा जब बाँहें जबड़े दबाकर
आँखों में कुछ लाल सा भर कहा था—ज़हर हो
अनेक दिन जला था कंठ इस ज़हर से
अक्सर, नानी कहती—ज़्यादा चीनी ज़्यादा नमक खाना है ज़हर
और आते-जाते कानों में पड़ने लगे थे स्वर
कभी चीनी से भी मीठी तो कभी नमक से भी नमकीन का
और दिखने लगा था, ज़हर का एक अलग रंग
कुछेक की आँखों में तो कुछेक के पीले-सड़े दाँतो से पिसते ओठों पर
चौंक से पीपल गाछ की दूरी थी ज़हर
कब्रगाह से आम-बगीचे की हवा थी ज़हर
बग़ीचे से नदी का पानी
पानी से स्कूल का मैदान तक था ज़हर
अक्सर नानी कहती—
बकरिया वाली के पेट में भर गया है ज़हर
गिरा था तीसरा गर्भस्थ बच्चा
नुजिया-माय को हुआ है सात बेटी पर जोड़ा बेटा
उसका आदमी माथा पीट रहा कि
जिन्नगी ज़हर हुआ
नानी कहती नितदिन सब 'महाकाल' की माया
वही जीवन देते और लेते
वो सबका ज़हर भर लेते अपने कंठ
सुनो नीलकंठ-विषधारी
धर लो मुझे अपने कंठ में
- रचनाकार : घुँघरू परमार
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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