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ज़फ़र

zafar

अरुण देव

अरुण देव

ज़फ़र

अरुण देव

और अधिकअरुण देव

    उस कंधे पर अतीत का वैभव था

    अब वह एक बोझ था

    झुक गए थे कंधे

    विरासत की महानता भारी होती है

    ढहते सल्तनत के बेरंग तख़्त पर बैठ

    ज़फ़र लिखने लगा था कविता

    वह फ़क़ीराना बादशाह क्या करता शासन के गद्य का

    उसकी कविता निर्मल बहती प्रेम और करुणा के बीच

    जिस पर कभी-कभी उतर आते तसव्वुफ़ के श्वेत हंस

    कविता के बाहर कड़ी धूप थी

    चमक रहा था पश्चिम का सूर्य

    बिगड़ने लगा था दिल्ली का रंग-ओ-रूप

    क्या करते ज़ौक़, क्या हो सकता था ग़ालिब से

    उस आँच की तपिश से सुलगने लगी थी दिल्ली

    वह आग जो

    उठ रही थी मेरठ, लखनऊ, झाँसी, कानपुर, बरेली, जगदीशपुर से

    शहंशाह-ए-हिंदुस्तान

    लाल क़िले के बाहर खड़ा था वसंत की अगवानी में

    इस दुखांत महाकाव्य के अंतिम सर्ग में खड़ा वह

    कितना बादशाह था कितना कवि?

    खिंजा के बाद चमन में गर्द-ओ-ग़ुबार था

    यार की गली से दूर

    इंतज़ार और आरज़ू में कट रही थी उसकी उम्र

    थी तो अब शाइरी थी

    नूर की तरह चमकती हुई

    उसके ही कू-ए-यार में...

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरुण देव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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