ये शरद की रातें हैं
ye sharad ki raten hain
ये शरद की रातें हैं मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
इन्हें होना था सुंदर, हल्का और सुखद
पर ये विलाप की रातें हैं
पढ़ने की मेज़ पर देर रात बैठा रोता है एक आदमी
एक औरत बिस्तर पर गहरी नींद के बीच
बाढ़ में डूबती जाती है
संघर्ष करती हैं उसकी साँसें
वह सपने में बड़बड़ाती है
आस-पास
दूर तक फैले गाँवों में विलापती हैं दादियाँ
माँएँ विलापती हैं
बहनें और पत्नियाँ विलापती हैं
परदेस गए फ़ौजियों से लेकर
अमरीका और कनाडा तक गए इंजीनियर और डॉक्टर पहाड़वासियों के
बूढ़े घरों के
सदियों पुराने पत्थर विलापते हैं
सड़ते हुए खंभों में लकड़ियाँ विलापती हैं जिनके आँसू पी-पीकर
ज़िंदा रहती हैं दीमकें
एक बच्चा
जो वर्षों पुरानी शरद की किसी दुपहर में रोया था
चुप है
शायद ख़ुश है दूर किसी महानगर में
अब पिता की आँखों में उतरा है
उसके पुराने आँसुओं का खारा पानी
ये शरद की रातें हैं मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
इन्हें होना था सुंदर, हल्का और सुखद
ज़मीनों की ढही हुई मिट्टी
शिखरों से गिरे हुए पत्थर
उखड़े हुए पेड़
बादल फटने से मरे लोगों की लापता रूहें
इन्हें भारी बनाती हैं
अँधेरों में छुपाती हैं
हमारे कितने ही बाआवाज़-बेआवाज़ विलापों का
भार लिए
जब झुकी हुई घूमती है पृथिवी
तो हमारे अक्षांश के कितने हज़ारवें अंश पर गिरते हैं उसके आँसू
नींदों से भले बाहर हों
ढहते हुए सपनों और आती हुई तकलीफ़ों से ख़ाली नहीं हैं ये शरद की रातें
घाटियों और पहाड़ों के सूने कोने विलापते हैं
धरती पर इकट्ठा होती रहती हैं
ओस की बूँदें
ओस है कि आँसू
शरद दरअसल ओस की शुरुआत भी है मेरे पहाड़ों
और मेरी छाती पर
ये शरद की रातें हैं
जिससे लदी हुई बहती हैं पतली-दुबली नदियाँ
आपस में मिलतीं
बड़ी और महान बनती हैं अपनी ही पवित्रता से पिटती हैं
उनके साथ दूर समुद्र तक जाती हैं ये शरद की रातें मेरे पहाड़ों की
समुद्रों का शरद अलग होता होगा
कछारों-मैदानों का अलग
बरसाती जंगलों का शरद
और मरुस्थलों का
हर कहीं रहते हैं दोस्त उनका शरद अलग होता होगा
ये शरद की रातें हैं बोझिल दर्द से भरी
इधर ख़ास-ख़ास पहाड़ी शहरों में शरदोत्सव की धूमधाम
लोक से परलोक तक आती ललितमोहन फ़ौजी और सुनिधि चौहान की आवाज़
अब तो दोनों ही जहाँ ख़राब
उधर आयोजक समिति के संयोजक सचिवों का माइक से गूँजता धन्यवाद ज्ञापन
बहुत भारी है करोड़ों का ये धन्यवाद मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
शरद की इन रातों में
जबकि घरों के बाहर-भीतर
आजू-बाज़ू
विलापती ही जाती हैं बूढ़ी बिल्लियाँ
और जवान ख़ूनी मज़बूत दाँतों, नाख़ूनों और इरादों वाले बिलौटे
गुर्राते हैं लगातार!
- रचनाकार : शिरीष कुमार मौर्य
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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