पूर्वार्द्ध
मैंने अपनी देह सहेजी
और आत्मा को प्रताड़ित किया
उसे अक्सर विषाद के खौलते तेल में तड़पता छोड़ दिया
या आँसुओं के खारेपन में डूब जाने दिया,
स्मृतियों के गहन वन में भटकती
वह भूलती गई वापसी का रास्ता,
अपना अनंत संगीत विस्मृत कर
वह लयहीन हुई कामनाओं के आलाप से
मेरी देह मेरी आत्मा की यातना-कक्ष थी
और उसका क्रूर प्रहरी था तुम्हारा शरीर
किसी वधिक की तरह उसकी हर कोमलता के आखेट में,
मेरी यत्न से सँवारी गई देह
कुटिलता से उघार देती थी हर बार
आत्मा की सभी नील-ख़रोंचे
किसी अन्य के राग में डूबा शरीर
वैरागी हो गया था अपने ही मन से
अपनी ही आत्मा का चिर शत्रु बना
बेरहमी से गिनता था उसके घाव
अब जब शेष हैं प्रेम की अस्थियाँ
उन्हें चुनता मेरा घायल शरीर
जब भी कराहता है अदम्य पीड़ा से
उसे शरण देने के लिए शेष रहती है
सिर्फ़ मेरी आत्मा की कोख
उत्तरार्द्ध
एक सोए हुए अजगर-सी यंत्रचालित सीढ़ी पर
पंक्तिबद्ध रेंगते हुए अक्सर
नज़र उठती है एक चेतावनी पर
जीने के लिए आज भी फेफड़ों में भरा जाएगा ज़हर
भीड़ का हिस्सा भी रहना है और अपने लिए एक अदद जगह भी बनानी है
सर्वाइवल के नियम याद रखते हुए
समझदारी से बोलना और चुप रहना सीखना है
मुस्कान ओढ़े आँखें छुपानी है
और उन्हें फेर सकना भी जानना है
दिखाई देती है दूसरी ओर ख़ामोश गुज़रती हुई
घर की ओर जाती रेल
बमुश्किल दफ़न की जाती है एक इच्छा
शामिल हुआ जाता है हर रोज़ एक अनचाही यात्रा में
अब घर ने भी बेवजह बुलाना छोड़ दिया है
एक यात्रा जो आरंभ की गई थी सदियों पहले
जारी रहेगी सदियों तक
गुज़रती रहेगी सामने से उस शहर को जाती रेल
जिसमें बैठ सकना सिर्फ़ एक क्रिया भर नहीं
उसके साथ जुड़ी है हमारी सभ्यता की संपूर्ण बारहखड़ी
और फिर एक दिन शहर भी सपनों में आना बंद कर देगा
जैसे आजकल अक्सर नहीं आती है कविता
यह चाह रही कि कभी तो कविता-सा हो जीवन
जिसका कोई तयशुदा व्याकरण नहीं हो
एक दिन को जिया जा सके उसकी यायावरी में
एक शहर की आत्मा में झाँका जाए
पर सुबह से शाम तक
इतनी ज़्यादा ख़र्च होती जा रही ज़िंदगी
और कुछ भी कविता-सा नहीं
फिर भी रोज़ ख़ुद को यह याद दिलाए रखना ज़रूरी लगता है
कविता ही है जिसने बचाए रखा है
निरंतर
यात्राओं में ही उपजती रही कविताएँ
सफ़र की थकन और शोर के बीच
जीवन की तमाम अनिश्चितताओं
और दुखों की अव्यक्त कथाओं के बीच
लेकिन बंद कर आँखें उतर जाना अपने अंदर
और निर्मित करना एक अदृश्य सेतु देह से मन तक की यात्रा के लिए
एक अनिश्चित जीवन की तयशुदा यात्राओं के मध्य
यायावर-सी भटक सकती है आत्मा
शरीर के लिए तय की गई हर परिधि से बाहर
मेरे लिए यही इबादत रही
और यही काम्य
- रचनाकार : रश्मि भारद्वाज
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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