किस तरफ़ देखूँ
एक पूरा गाँव क़त्ल किया गया है
एक पूरा देश ही सूतक में है
लाशें बिखेर दी गई हैं
सड़क के दाईं ओर
कौन रोए किसके लिए
जब कोई बचा ही नहीं है
ससुराल से लौटी हैं बेटियाँ
सिर मुँडा तर्पण दे रही हैं
पिताओं को
रसदार पेड़ों में घंट बँधे हैं
मातम में डूबी हाड़ियों में
झलझलाती हैं पिताओं की डबडबाई आँखें
चिल्लाकर घंट फोड़ देना चाहती हैं बेटियाँ
मातम में डूबा है पूरा बाग़
मरी हुई माँएँ दुधमुँहे बच्चे
छाती से चिपटाए
रात भर रोती हैं पेड़ों की ओट से
तालाबों में उल्टी उतराई हैं चारपाइयाँ
पिताओं और भाइयों की
दाग़ लिए हैं बेटियाँ
उनके चेहरे से मिट गए हैं भाव सारे
खपरैलों पर रोती बिल्लियाँ
मुँह में दबाए अपने बच्चों को
किसी और दिशा को जा रही हैं
खलिहानों में कुत्ते और
खेतों में सियारिनों का मातम है
फिर भी टूटता नहीं इस रात का सन्नाटा
सुबह-सुबह घाटों पर बिलखती
सिसकती, डरी हुई हैं बेटियाँ
सूख रहे ख़ून पर क़त्ली बूटों की छाप
दूर तक दिखाई देती है
बंद कमरे में अकुलाहट है
बाहर डर से फूलती है साँस
किस तरफ़ देखूँ
कम हो आँखों की जलन
किस तरफ़ देखूँ
कि आँखों का होना ज़रूरी लगे
उठ रहा है आग का बवंडर
इस छोर से उस छोर तक
फैल रही है आग
पानी में उठ रही हैं तेज़ भँवरें
एक भरी-पूरी नाव
धीरे-धीरे डूब रही है
जबकि मैंने धारण किया है गर्भ
मेरी छातियों में दूध उतरा है
मृत्यु की खुरदुरी जीभ चाटती है
दूध भरी छातियाँ मेरी
किस गोद में छुपाऊँ अपने बच्चों को
चीख़ें न पहुँचें इनके मुलायम कानों तक
बिस्तर पर किस ओर सुलाऊँ
हर ओर जाल-सी बिछी हैं
उनकी घाती इच्छाएँ
उनकी आँखों के गड्ढों में ख़ून भरा है
बहनें जो उम्र में बेटियों-सी थीं
बेटियाँ जो बिन माँओं की थीं
जो हवाओं के मुक़ाबले तेज़ थीं
गड़ती हैं क़त्ली आँखों में रेत-सी
उनकी पीठ के नीचे बिछाए गए हैं
बिजली के नंगे तार
वे डूब रही हैं ख़ून भरे गड्ढों में
हर ओर चल रहा है सरकारी विज्ञापन
‘वियाग्रा’ की गोलियों पर
कुछ औरतें ललचाई हुई हैं
कर रही हैं ज़ख़्मी एक दूसरे की पीठ को
वियाग्रा के नशे में पूरा गाँव डूबा है
पूरा देश ही एक अनचाही पैदाइश है!
उल्टियों पर पाँव धर
उबकाइयों को घोंट
आगे बढ़ रहे हैं लोग...
- रचनाकार : अनुपम सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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