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वह कर गया पार

wo kar gaya par

फ़रीद ख़ाँ

फ़रीद ख़ाँ

वह कर गया पार

फ़रीद ख़ाँ

और अधिकफ़रीद ख़ाँ

    उसके पूरे परिवार का अपहरण कर लिया गया।

    उसने बेगार से कर दिया था इंकार।

    थोड़ा बहुत पढ़ लिया था नज़र बचा के।

    वह गाँव से लगी सड़क पर,

    जहाँ बस आकर रुकती है थोड़ी देर,

    खोलना चाहता था मोची की एक दुकान।

    उसके घर के सामने नीम के पेड़ से उसे बाँधकर,

    उसके ही सामने

    घर वालों को घर में बंद कर,

    कर दिया गया उनका दाह-संस्कार।

    सदियों से नंगे पैर रहने वाले अपने लोगों को,

    रास्ते के काँटों से बचाने के लिए जूते-चप्पल देने के उसके अरमान को

    आग अपनी जीभ से पकड़-पकड़ निगल रही थी।

    उन्हें रफ़्तार देने की उसकी कोशिश धू-धू कर जल रही थी।

    राख के बाद उसे छोड़ दिया गया।

    वह राख के बीच बैठा था,

    और राख उड़-उड़कर उसके कँधे पर बैठ रही थी।

    हाथों पर, होठों पर, सिर के बालों पर बैठ रही थी।

    मानो उसकी बेटी कंधे पर चढ़कर हुमक रही हो।

    बीवी ने हाथ थाम कर होंठों को चूमा हो।

    विधवा माँ ने सिर पर हाथ फेरा हो।

    और वह कर गया पार

    गाँव की सीमा को पहली बार।

    पर वह शहर नहीं गया,

    जंगल गया।

    सरकार के स्वर में स्वर मिलाते हुए,

    अब रोज़ पत्रकार उसकी ख़बर छापते हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : फ़रीद ख़ाँ
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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