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वह जीवन को जीवन देती आवाज़

wo jiwan ko jiwan deti awaz

नीलोत्पल

नीलोत्पल

वह जीवन को जीवन देती आवाज़

नीलोत्पल

और अधिकनीलोत्पल

    बरसों जिस आवाज़ को सुनकर जागा

    वह आवाज़ तोतों की, चिड़ियों की,

    किसी फ़िल्मी भजन या गीतों की नहीं थी

    किसी गाड़ी के गुज़र जाने की भी नहीं

    या बादल गरजे हों या

    बारिश की बूँदें थिरकी हों धरती पर

    वह आवाज़ दुनिया के तमाम नहीं के बीच

    बंद कमरे में घर्राती चुपचाप

    जब मैं इस चुप के बीच होता

    तब पहाड़ी गर्राहट मेरे कानों को बेधती

    लेकिन जब गेहूँ, मक्का, बाजरा, दाल या ज्वार पीसी जाती

    मुझे एहसास होता कि

    मैं अपनी भेड़ें चराता

    सुन रहा हूँ पहाड़ी संगीत

    जबकि गाने के लिए

    पर्याप्त शब्द नहीं हैं मेरे पास

    दुनिया में जीविका चलाने के लिए

    कितने ही पर्याय मिल सकते हैं

    लेकिन मैं जैसे चिपका रहा हूँ इसकी छाती से

    इसकी घर्र-घर्र करती मशीनी आवाज़ ने

    टूटने नहीं दिया भीतरी इंसान को

    मैंने इसे माँ से पाया

    लेकिन माँ के हाथों में

    यह पिता की बीमारी के चलते सौंप दी गई

    माँ नहीं थी पढ़ी-लिखी

    तब भी उसने सीखा

    दुनिया में रहने के लिए

    हाथ पसारने की नहीं

    ज़रूरत है उन जड़ों की तरह फैलने की

    जो अपनी क्षीणता में भी

    बढ़ जाती हैं ज़मीन के अंदर

    वह जुटी रही

    उसने कभी नहीं सीखा अख़बार पढ़ना

    उसकी दुनिया चक्की के इर्द-गिर्द रही

    वह मजबूरी में चलाती रही

    ऐसा कहना ग़लत होगा

    कभी नहीं लगा वह छोड़ देगी चलाना

    उसकी मजबूरी भी भारी थी उन पर

    जो अपनी चाहत के बावजूद ऊब जाते हैं

    अपने कामों से

    मैं कभी नहीं जान पाया

    माँ और चक्की किस तरह अलग हैं

    एक-दूसरे से

    एक औरत का संघर्ष

    किसी तरह दुख के ढलान से लौट जाता है

    फिर चाहे वह पतरे में आटा गूँथने के वक़्त आए

    या हाथों की चमड़ियों को घिसते

    उतर आए फ़र्श पर

    या वह छिपा हो दीवारों की दरारों में

    या हो ईश्वर की तस्वीरों के पीछे

    जिसे पूजती रही माँ ताउम्र

    वह लौट जाता है

    जैसे लौट जाती हैं लहरें अनंत में

    जैसे बरसों चक्की चलाने के बाद

    दुख की ज़मीन पर उगने लगते हैं फूल

    जब तक पिता इसे चलाते रहे

    मैं अंतर नहीं कर पाया

    ज़िंदगी और चक्की में

    जब माँ ने सँभाला

    ज़िंदगी टाँकती रही उन पत्थरों को

    जो बड़े सख़्त और सपाट थे

    जाना चक्की किस तरह पिसती है

    दरदरा और बारीक़ आटा

    कॉलेज की डिग्री हासिल कर

    मैंने दुनिया में प्रवेश किया

    अपनी तमाम नाकामियों के बाद भी

    छुटी नहीं वह देसी-खाँटी आवाज़

    जो कहीं और से नहीं

    सीधे भीतर से रही थी

    मैं लगातार हार रहा था सपने और इच्छाएँ

    लेकिन जीवन बिखरा हुआ था ज़्यादा

    अंततः अनिच्छा से भरा, सुनता रहा

    जब संघर्ष टूटा

    थक कर चाहा कि

    बह लूँ उस आवाज़ के साथ

    जो कम से कम

    डूबते वक़्त समुंदर में साथ तो होगी

    जैसे झरे पत्ते

    नष्ट होने से पहले

    अपनी चरमराती आवाज़ में

    कहते हैं अलविदा

    धरती से उन्हें प्यार था

    मेरे हिस्से में चक्की

    उन पत्तों की तरह रही

    जो अंत तक

    नहीं कहना चाहते थे अलविदा!

    मैं वहीं बैठा हूँ

    जहाँ कुछ दिनों पहले तक

    चलती रही चक्की

    कई सालों तक

    यहीं खड़े होकर

    डाले हैं सुपड़ी में

    अनाज से भरे डिब्बे और पोटली

    आह! यह ख़ाली जगह

    और मेरे शरीर की ढीली पड़ती चमड़ी

    इसके चलते रहने से

    घर की ईंटें नाचने लगती थीं

    जैसे गा रही हों सदियों से कोई गीत

    जैसे नदी की सतह पर तैरता हुआ पत्थर

    इसकी गहरी कंपनदार आवाज़ ने

    जब भी छुआ मुझे

    एहसास नहीं हुआ

    किसी अप्रत्याशित घटना का

    लगा सब कुछ गहरे विश्वास के साथ आया हुआ-सा

    इसके होते जाना

    जिनके खेत अलग कर दिए गए

    जिन्हें छोटा और नीच कहा

    उन लोगों के दानों और जीवन में

    कोई अंतर नहीं था

    रोज़ एक-आध किलो आटा लेकर

    पेट भरने वाले मज़दूर

    दिन भर काम की थकान के बावजूद सभ्य थे

    मैं उनसे पूछता—कल कहाँ काम लगेगा?

    कहते—कौन जाने!

    जैसे सदियाँ बाक़ी हों आज और कल के बीच

    उन्हें भरना नहीं है कुआँ

    जो कल किसी तरह फिर खोदा जाएगा

    उन आधी उग आई जड़ों के साथ

    जीवन का फैलना

    उन जड़ों की तरह था

    जिन्हें गिलहरियों ने नहीं कुतरा

    बल्कि हम ही यह सोचते आए कि

    अवसरों और साधन की कमी ने

    कमज़ोर किया है

    जबकि पत्थर हटाने के बाद देखा तो

    ज़मीन उतनी ही नम और गीली थी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नीलोत्पल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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