वो औरतें
wo aurten
मौके-बे-मौके याद आती हैं
गाँव के आँगन में
संभालती सहेजती
संबंधों को बिना किसी
लाग लपेट के वो औरतें
जो रसोई में चूल्हे पर खौलते
अदहन देख सोच में डूब जातीं
क्या अंदर भी कुछ खौल रहा था?
ज़िंदगी का फ़लसफ़ा सिलबट्टे
को दिखा समझाया था
पीसना आसान है पर पिसती
रहना बहुत ही कठिन
हँसी ख़ुशी सब साझा करतीं
पर बाँटना हो जब मन का कोना
बस एक चुप्पी लगा बुहारने लगतीं थीं
आँगन का चप्पा-चप्पा
कलछुल, बेलन, चकला, चिमटा
रसोई की तमाम चीज़ों को पता होता
था उनके दिल का हाल
संभालती बड़ी मुश्किल से
अल्हड़-सी लड़की को जो रहती थी
उनके अंदर जो दिखाती
सपने ख़ुशरंग से उड़ान भरने की कल्पना
से रोमांचित हो खोंस ली साड़ी
अपनीं फटी एड़ियों को
सहला कर क़दम बढ़ाते ही
याद आता साँझ-बाती का समय हो गया
चाय भी नहीं बनी अब तक
लकड़ियाँ भी तो हैं गीली
एक नई चुनौती को लेकर
सर पर खींच लेती आँचल
और वो अल्हड़ लड़की
फिर कहीं खो जाती हमेशा की तरह
- रचनाकार : भावना झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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