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विवश

wiwash

मनोज कुमार झा

अब मैं तुझे क्या दूँ

क्या छोड़ जाऊँ तेरे साथ

मेरे पास कुछ किताबें थीं जैसे आईनों का गुच्छा

एक एक अक्षर शीशा था

वे सारे कहीं लुप्त हो गए

मैंने तो अपनी नीम-बेहोशी में अक्षरों को किताबों से छूटते देखा

कई बार तो कई पन्ने देखे बहुत दूर

कटी पतंग-सी हवा में फड़फड़ाते

कोई साथ ही नहीं देता

मेरी किताबों की दुर्गति का निगेटिव फ़ोटो बनाने में

मैं एक सिरा सौंप सकता हूँ तुमको इस बेरौनक़ कथा का

कई सहतिया थे मेरे जो पोखर किनारे के पेड़ थे

तीन-चार तो तीस के भीतर ही रह गए

कई पचास से पहले

जैसे लहलहाते खेत को पाला मार गया

उजड़ गई बाँसों की बाड़ी

अब जो बचे हैं उन्हें दोस्त सँभलकर कहना पड़ता है

बड़े हुनरमंद थे सारे

पर सारे मशीन हो गए

दुनिया की नक़ल की मशीन

वो मशीन जो कुछ जोड़ती नहीं दुनिया में

अकाल मरे जो दोस्त

दोस्त जो हुए मशीन कुकाल

मैं इनकी कथाएँ सुनाता

पर जाज़िम फट गई है जहाँ-तहाँ

जैसे पेड़ पर खड़े भुट्टे से ही किसी ने चुन लिया दाना

कुछ भी नहीं मेरा हासिल

धवल संघर्ष नहीं कोई

इन टेढ़ी उँगलियों वाले हाथों से कैसे सहलाऊँ माथा, दूँ आशीष

पाँकी नदियों से घिरी मेरी रातें

सूखे पेड़ों के वन में गुज़रे मेरे दिन

मैं तुझे खाने को कहता साथ-साथ

मगर चले जाओ बहुत सुंदर बनाती है तेरी माँ बथुआ का साग

मुझे भी कल यहाँ से निकल जाना है।

स्रोत :
  • रचनाकार : मनोज कुमार झा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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