अपनी मातृ-भाषा में विश्व-कविता रचता हूँ
सुना-सुना कर तुम्हें करता हूँ और तस्दीक़
तुम्हारे होंठ चूमता हूँ
और बचाता हूँ धरती पर रिश्तों की आग
एक पेड़ लगाता हूँ
जो पृथ्वी के आँगन में बड़ा होता है
और लिखता रहता है हर पसीने के लिए छाँह
मेरी प्रेम कविताएँ भी वृत्ताकार हैं
इसीलिए पृथ्वी के हर प्रेम के लिए
ससम्मान खर्च करती रहती हैं
बहुत जतन से सहेजे हुए अपने भाव-अनुभाव
कहा न! मैंने आपसे
मैं अपनी मातृ-भाषा में विश्व-कविता रचता हूँ
अपनी साँसों से खींचता हूँ भाषा के जल में तैरते शब्द
और धरती पर साँस लेते हर जीवन से
जुड़ जाते हैं मेरी ज़िंदगी के तार
अपनी मातृ-भाषा में कविता लिखता हूँ
अर्थात सबकी मातृ-भाषा में
कविता लिखता हूँ
सबकी तरह का ही रोना, हँसना, पीड़ा, प्रेम...
सबकी भाषाओं में सुंदरता की ही तरफ़दारी है
सुंदरताएँ ही सुंदरताओं का संशोधन करती चलती हैं
और बढ़ता जाता है जीवन का जीवन पर ऋण
और इससे कोई
उऋण नहीं होना चाहता है!
- रचनाकार : प्रेमशंकर शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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