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विषमगति की पर्त

wishamagati ki part

कीरत सिंह इंकलाबी

कीरत सिंह इंकलाबी

विषमगति की पर्त

कीरत सिंह इंकलाबी

और अधिककीरत सिंह इंकलाबी

    मैं अँधेरों से जूझता आया

    तुम अपनी चेतना जगाओ

    सूझ समझ का खोलकर तीसरा नेत्र

    पढ़ो ब्रह्मांड की रेखाएँ

    आओ रोशनी की ओर चलें

    चिरकाल से बर्फ़ीली रात में

    दूध घवल-सी बर्फ़ की मूर्ति बनी

    बेडरूम के बाहर खड़ी थी

    गर्म चेतना को भोगती

    क्षणोपरांत बैठक सजे कमरे में

    टीवी पर ख़बर रही थी

    झंगसयाल से दानाबाद तक

    शीत लहर जारी है

    आँख फिराते ही धवल मूर्ति पर

    साया था अस्तित्व का

    नहीं पलों में खड़ा

    मेरी ममता का जाया था

    मेरे भीतर युवती अपने देश-लोक में

    हरे पर्वत-सी छाती पर

    प्रतिदिन अपना चेहरा इस झील में उतारती

    पिघल जाता मेरा निजत्व

    धवल दुधिया बर्फ़-सा

    फिर प्रकट होती गतिशीलता

    शरीर से आत्मा तक के लिए?

    इसी पर्त की स्थूलता में

    सहज ही उमंग पड़ता है

    संतुलित मन का पैराडाइज़

    सुलग उठती है मेरे अंदर की सृष्टि

    रोशनी के वारिसों, धरती को पुरनूर करो

    उजली दोस्ती के साथ मेरे साथियो

    समय के हमसफ़रो...

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 661)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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