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विपर्यय

wiparyay

जगदीश चतुर्वेदी

और अधिकजगदीश चतुर्वेदी

    असहनीय प्रतीक्षा में गुज़र रहे हैं कड़ु ये लंबे गर्मी के दिन

    छतों से रिसती है सूर्य की गर्म-गर्म राल

    और खिड़कियों में लंबी काली जीभ पसारे रेंगती है एक

    पहली परछाई!

    सोती हुई आँखों में किसी ने झोंक दी है मुट्ठी भर रेत

    रात को तरह दिन का अजगर सीलता रहता है

    अपने जबड़ों से किचकिच करता हुआ शरीर!

    शरीर में अपना कहने को कुछ शेष नहीं रहा है

    रोमों में लगता है किसी स्त्री के रोम उग आए है

    अधरों में पसीजते रहते हैं दबे हुए नारी अंग

    और जिह्वा के इर्द-गिर्द एक लिसलिसा स्तन

    पैदा कर देता है ऐंठन!

    एक मृत्यु यंत्रणा में टूटते हुए प्रणय-बिंदु

    अंगों की निरर्थक चेतना का उपहास उड़ाते हैं

    दिन के लंबे-लंबे क्षण किसी उदास त्वचा का

    मांस खाते-खाते रात में बदल जाते हैं!

    मेरी देह का रंग बदल रहा है

    मेरी आँखों की पुतलियाँ पलट रही हैं

    मेरी वक्ष पर उग आए हैं छोटे-छोटे पुष्ट वक्ष

    प्रतीक्षा की अंतिम घड़ी में

    उसकी गुप्त योनि मेरे सन्निकट निर्वसन पड़ी है

    और मैं कराह रहा हूँ!

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 88)
    • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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