जाड़े के दिनों का स्वप्न
jaDe ke dinon ka swapn
हड्डी ठिठुराती हुई कुहेलिका और
काल-शकुनों के पंखों के नीचे का उत्ताप इसी से हमारे
सैकड़ों स्वप्न के पंजर बनाए जाते हैं। आज के महँगे
दिनों में एक स्वप्न की कीमत कितनी?
फ़रार कवि, हमारी स्मृति-गुफा की मकड़ी की जाली में
कितने स्वप्न लीन हुए हैं। तुम जानते हो क्या?
वीर गदाधर जाड़े के दिनों में नागिनी का प्रेम याद करते हो क्या?
(समुन्नत वक्ष, लालमणि-सा होंठ,
अनार-दाने की तरह दाँतों की पंक्ति)
सोनपाहि, तुम आई हो। आओ! तुम्हारी हाथ की दराँती में
सहस्र युगों की शान। (आगे बढ़ी है नौका और उसका
अगला भाग...)
हमारी आँखों में आशा के पुच्छल तारे, अब जलते हैं, अब मिट्टी हैं।
खंजन पक्षी के मयूर-नृत्य में स्तब्ध प्राण में सप्त-सिंधु की
बाढ़ आती है। मरिकलंग में वर्षा की लहरें।
किनारे में जल की वनस्पतियाँ
दूकान लगाए बैठी है। जनता की उथल-पुथल।
तुम्हारे लावण्यमय दोनों बाहुओं में एक-एक वजनदार धानों की गठरी।
हमारे बाहु में सहस्र-युगों का शौर्य-वीर्य।
हाथों में तुम्हारी दराँती नाचती है।
आँखों से नहीं निहारती है सुनहरी धान।
ललाट में कच्छा, मोती की बूँद।
प्यारी चलो, धान काटने जाते हैं...
चूल्हे की आग के प्रकाश में तुम। मेरे प्राण के अप्रकट कोने में
तृषानल जल रहा है...आह तुम्हारे बर्फ़ीले होंठ।
महापृथ्वी में तेज़ की आरति। एक चिड़िया आती है। दो चिड़ियाँ
आती हैं,
एक धान ले जाती है, दो धान ले जाती हैं...धान के गोदाम में
गिरगिट का रण-नृत्य।
गिरगिट के वेश के नाश के लिए
और कितने दिन हैं? और कितने दिन हैं?
शीत के अंत में फिर आएगा निर्लज्ज फाल्गुन। बहागी बिहु।
रँगीले दिन। फूलों के बग़ीचे। कोयल और काकातुआ गान की भेंट।
फिर आएगी दिखौ में बाढ़। साथी, डर किसके लिए?
पहली रात की अपरिचिता पत्नी की तरह पृथ्वी काँप रही है।
उफ़ और कितना जाड़ा है। सोन पाही, हमारा स्वप्न
हम ही ख़ुद बनाएँगे। कीचड़ और पानी। सुनहरे धान।
हमारे खेत। हमारी ज़मीन। गर्भस्थली से नव दिवस का जन्म-क्लेश।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 41)
- रचनाकार : हेम बरुआ
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1956
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