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वाॅल ऑफ़ डेमोक्रेसी

wayel off Demokresi

त्रिपुरारि

त्रिपुरारि

वाॅल ऑफ़ डेमोक्रेसी

त्रिपुरारि

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    जब इंडिया गेट के माथे पर मोमबत्तियाँ जलती हैं

    तो उसकी सुगंध में सनक उठता है जंतर-मंतर

    सज़ा के झुलसे हुए उदास होंठों पर

    एक चीख़ चिपक जाती है काले जादू की तरह

    लोग कहते हैं—समय को सिगरेट की आदत है

    मैं तलाशने लगता हूँ अपनी बेआवाज़ पुकार

    जो गुम गई है एक लड़की की मरी हुई आँखों में

    लड़की, जो अब ज़िंदा है महज़ शब्दों के बीच...।

    भेड़िए अब भीड़ का हिस्सा बन चुके हैं

    यह रंगों की साज़िश के सिवा भी बहुत कुछ है

    जो अंत में उभरता है सिर्फ़ सियाह बनकर

    मदद करने से पहले घंटों सोचने वाले लोग

    घंटों खड़ा होने से नहीं हिचकिचाते हैं

    एक चिड़ियाघरनुमा इमारत के सामने

    जहाँ मैंने गीदड़ों के अलावा किसी को नहीं देखा

    (क्यूँकि अपनी आँखों पर आरोप नहीं उड़ेल सकता)

    मैं ख़ुद को पागल घोषित करने पर मजबूर हूँ।

    दिमाग़ की नीली नसों में तैरती हैं दादी माँ की बातें

    दादी माँ कहती थीं—

    ‘सितारे बन जाते हैं लोग मरने के बाद’

    कुछ सोचकर अपने बदन पर मलने लगता हूँ

    एक काँपती हुई गुहार की राख

    (जो सितारों की राख की तरह बे-रंग है)

    तमाम एहसास हाथी की पूँछ पर जा बैठे हैं

    और हाथी के सिर से जूएँ निकाल रहा है एक बंदर

    एक लोमड़ी कहती है—

    हमारे पुरखों ने खट्टे अंगूर की नस्लें ख़त्म कर दी है।

    भारत के चेहरे पर अब भी हैं चकत्तों के दाग़

    भले दिल्ली अपनी छाती का कोढ़ छुपा ले

    बयानबाज़ी का ब्लू पीरियड अभी गुज़रा नहीं है

    वाॅल ऑफ़ डेमोक्रेसी पर कोई लिख गया है—

    कुत्ते की दुम में पटाखों की लड़ी बाँधना मना है

    मुझे शक होता है उँगलियों की भाषा पर

    हैरान हूँ साँस के उमड़ते हुए सैलाब को देखकर

    उम्मीदों को शर्म की नदी में डूब मरना चाहिए

    यह जानते हुए कि एक डेड प्लेनेट है चाँद

    लोग अब भी आसमान की तरफ़ ताक रहे हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : त्रिपुरारि
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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