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वर्दी

wardi

पेट आदमी को तरह-तरह के आदमियों में बाँट देता है

और फिर उनके साथ चस्पाँ हो जाती है

तरह-तरह की नैतिकताएँ

कर्त्तव्य, देश, राष्ट्र, शांति-व्यवस्था की विस्मयकारी कथाएँ

आदमी के इस बँटवारे की एक ख़ास पहचान है वर्दी

जो शुरू के दिनों में उत्तेजक लगते हुए भी

अजीब लगती है

बेहद कष्टप्रद, एक जैसे मोटे ख़ाकी कपड़ों को चढ़ाना

पट्टा कसना, नंबर चिपकाना

जैसे हवा को बोतल में बंद कर दे पहाड़ की चुप्पी

पिता उससे कहते मूँछ रखना शुरू कर दो रोब पड़ेगा

और वह वर्दी में साइकिल पर सवार

अपने को बिजूका समझता

निकलता है सकुचता पहली बार

और फिर धीरे-धीरे वर्दी उसकी देह का हिस्सा बन जाती है

जैसे वह वर्दी पहनकर ही पैदा हुआ

फिर और कुछ दिनों बाद वर्दी उसकी इज़्ज़त पहचान

और सब कुछ बन जाती है

अब चीज़ें फैलना शुरू कर देती हैं

और शक्लें बदलना

फैलने वाली चीज़ों में मूँछ-पेट

और साइकिल मोटर साइकिल में बदल जाती है

बीवी और बच्चों के लिए हव्वा खड़ा कर देते हैं वर्दी के हालात

बटन सही-सलामत है सीवन तो नहीं उधड़ी

कहीं कोई धब्बा दाग़ तो नहीं, शेर दहाड़ता है

प्रेस कड़क हो इतनी कि फ़्रिज़ पर केला गिरे तो कट जाए

वर्दी वाले की बीवी से ईर्ष्या करती हैं दीगर औरतें

वर्दी वाले के बच्चे से ख़ौफ़ खाते हैं दूसरे बच्चे

वर्दी वाले की अलग जमात बन चुकती है अलग बस्ती

अलग दुनिया एक दुखद बँटवारा

तिस पर बाहर के लोग समझते हैं कुबेर बसते हैं

वर्दी वालों के घरों में

पर आहिस्ता-आहिस्ता वर्दी खाने लगती है

आदमी के भीतर का मुलायम हिस्सा

सोखने लगती है आत्मा पर से बहता झरना

वर्दी वाले की बीवियाँ ढूँढ़ने लगती हैं अपने पति

बच्चे खोजते हैं अपने पिता और वे वर्दी को टटोलते रहते हैं

ख़ुद वर्दी वाला पूछता है अपने से आईने में एक दिन

कहाँ गया वह लड़का जो बीस साल पहले गुनगुनाता था

तलत महमूद के गाने कहाँ गया कोई जवाब नहीं मिलता

सिर्फ़ एक मुस्तैद छाया मंत्रोच्चार की तरह बड़बड़ाती है गालियाँ

जो किसी की समझ में नहीं आतीं।

स्रोत :
  • पुस्तक : जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा (पृष्ठ 169)
  • रचनाकार : चंद्रकांत देवताले
  • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
  • संस्करण : 2008

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