भूला नहीं हूँ वसंतसेना
सदानीरा में बाढ़ थी
और बहता था हमारा समय।
मैं सम्राट की दिग्गविजय-वासना में तुमसे दूर हुआ
वह फागुन था
जिसे हमने तलवारों से गर्म किया था।
विदा के समय तुम्हारा आगे बढ़कर
नाव की रस्सी खोल देना
तब तुम्हारी राष्ट्रभक्ति लगती थी
आज हमारी सामूहिक मूर्खता लगती है
यहाँ युद्ध-क्षेत्र में
कोई राष्ट्र नहीं है
कोई पवित्रता नहीं है
बस रक्त है
मिट्टी-सना-रक्त।
मैं युद्ध-क्षेत्र के बीच
एक टूटे रथ की छाया में बैठा हूँ वसंतसेना
मैं पिछले कई पहरों से लगातार लड़ता रहा हूँ
युद्ध ने सम्राट को क्या दिया मुझे नहीं पता
लेकिन मेरा वह हाथ जिसे
विदा के समय तुम देर तक थामे रहती थीं
अब उठ नहीं रहा।
अब मैं इस युद्ध-क्षेत्र में शत्रु नहीं
छिपने की जगह ढूँढ़ रहा हूँ वसंतसेना
अब मैं सैनिक नहीं
युद्ध के बीच फँसा एक अपाहिज हूँ
तुम्हारा गर्व मुझे धिक्कारता है वसंतसेना।
कल रात एक स्वप्न देखा
तुम विजय-तिलक लगाने आगे बढ़ती हो
और एक आहत सैनिक तुम्हारा गला काट देता है।
सम्राट क्यों होते हैं वसंतसेना?
क्या वे सच में हमारे गोधन की रक्षा करते हैं
वसंतसेना मुझे नहीं पता दिग्गविजय किसे कहते हैं
शायद हर दिशा में रक्त बिखेर देने में इसका कोई अर्थ हो
या मेरे शरीर से आठों पहर आने वाली गंध में इसका कोई अर्थ हो
जो धीरे-धीरे दुर्गंध में बदल जाती है
यदि उस पर और ताज़ा रक्त न चढ़ा दिया जाए
या मेरे तलवे में लगातार रहने वाली चिपचिपाहट
जो धीरे-धीरे काली पड़कर शरीर का हिस्सा हो जाती है
और रात में हमारे सोते समय
उसे खाने के भ्रम में चूहे हमारी उँगलियाँ कुतर जाते
चूहे सैनिक नहीं भूखे हैं
अंतर नहीं करते लिच्छवि, मगध, वज्जि, वत्स और कोशल की चमड़ी में।
वसंतसेना हमने जितनी नदियाँ पार कीं
उतने प्यासे हुए।
हम नदी में पाँव रखने से पहले
भूमि पर लेटकर उसका पानी पी लेते हैं
क्योंकि हमारे रक्त से लिथड़े पाँव पड़ने के बाद
वह पानी पीने-योग्य नहीं रहता।
नदी में अपना चेहरा देखता हूँ तो
पहला विचार यह आता है
कि मेरी गर्दन बड़ी आसानी से काटी जा सकती है
तलवार के एक ही वार से।
क्या कहता था वह बूढ़ा वात्स्यायन शंख-सम-ग्रीवा
उसे कहना एक सैनिक के लिए यह गुण नहीं दोष है।
नहीं ख़त्म होगा युद्ध कभी
काटने के लिए कुछ गर्दनें
जीतने के लिए
भूमि का कोई न टुकड़ा
सदैव शेष रहेगा
मेरा प्रतीक्षा मत करना वसंतसेना।
हमने सिर्फ़ शत्रुओं की गर्दनें नहीं काटीं
असंख्य नदियों के बलात्कार किए
अनेक फ़सलों की भ्रूण हत्याएँ कीं
मार्ग प्रशस्त करने के लिए
जब-जब कुचली फ़सल किसी किसान की
मुझे याद आया पिता का पसीना
और सरसों का वह टुकड़ा याद
जिसे तुम माँग में पहन लेती थीं।
वसंतसेना,
काश वह कवि विष्णुदत्त यहाँ होता
जीवन के इस नग्न सत्य के सम्मुख
कितना सुख देतीं उसकी मिथ्या कविताएँ।
वसंतसेना,
मुझे अब सम्राट पर क्रोध नहीं आता
समझ चुका हूँ वजह कि क्यों
वे योद्धाओं से ज़्यादा समय कवियों, मसख़रों और कलाकारों को देते हैं
वे क्यों मंत्रमुग्ध रह जाते हैं
नगरवधू के नूपुर की थापों पर।
सत्य बहुत निर्मम है
और कला बहुत सुंदर मिथ्या!
कोई मुझसे पूछे मृत्यु के इस क्षण में
मैं क्या होना चाहूँगा अगले जीवन में
वसंतसेना मैं योद्धा नहीं बनूँगा अगले किसी जन्म में
मैं विष्णुदत्त बनकर...
कविताएँ लिखकर
चित्र बनाकर
सप्तसिंधु की सब गणिकाओं के अंगवस्त्र
धोकर-सिलकर पूरा जीवन बिता दूँगा।
विष्णुदत्त से कहना कि वह सच ही कहता था
कहना मेरे पिता से वीरता बहुत साधारण होती है
कहना मेरे पिता से हल की धार
तलवार की धार से बहुत गहरी होती है
वात्स्यायन से कहना कि वह अमर रहेगा
तुम ख़ुद को समझाना जीवन प्रेम से कहीं बड़ा है
कहीं महान् है वसंतसेना!
वसंतसेना!!
वसंतसेना...
- रचनाकार : रचित
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.