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वृत्त से बाहर

vritt se bahar

पल्लवी विनोद

पल्लवी विनोद

वृत्त से बाहर

पल्लवी विनोद

और अधिकपल्लवी विनोद

    मुझे आकर्षित करती हैं

    ताँबई आभा लिए वो तमाम स्त्रियाँ

    जिनकी त्वचा आग और धुएँ से झुलसी हुई है

    जो कलफ़ लगी सूती साड़ी, खद्दर के मोटे कुर्ते

    या गोल गले की टी-शर्ट में सिमटी हुई हैं

    इनका सौंदर्य आयातित बाज़ार वाद पर बीस पड़ता है

    आँखों की चमक के आगे फीके पड़ जाते हैं समस्त फ़िल्टर

    अग्नि का ताप लिए ये औरतें, परिस्थितियों को धता बता

    संभावनाओं के तालाब खोदती हैं

    इनकी खुरदुरी उँगलियों में जड़ा हुआ है

    मधुमास के दिनों का दग्ध चुंबन

    और माथे की पर खिंची हुई है

    सलाखों के भीतर क़ैद की छटपटाहट

    इन्होंने परास्त की हैं

    रूढ़ियों, शील, स्त्रियोचित आचरण और

    बंधनों की चतुरंगिणी सेनाएँ

    विजय से उन्मत्त होकर जब इनकी ही माँएँ

    बजाना चाहती हैं दुंदुभी

    ये आगे बढ़कर उन्हें रोक देती हैं

    नहीं चाहिए इन्हें प्रसिद्धि

    प्रकृति की बेटियाँ, प्रकृति के सबसे क़रीब हैं

    धान रोपती, धान कूटती, भात पकाती लड़कियाँ

    जानती हैं पेट की भूख सबसे बड़ी भूख है

    और भूख लिंग भेद नहीं करती

    इन्होंने शुरू कर दिया है

    बेटियों को बेटों के बग़ल में परोसना

    हर निवाले को समानुपात में विभक्त करती ये औरतें

    ख़ुद को भी भूखा नहीं रखतीं

    उस पिंजड़े का दरवाज़ा तोड़ दिया है

    जिसके भीतर रखे थे सुनहरे उपहार

    काली मोतियों की मालाएँ उतार

    एक पैर में काला धागा बाँधती ये औरतें

    जानती हैं सूरत से ज़्यादा ज़रूरी हैं पैर

    इनके सहारे ही निकल जाएँगी

    तुम्हारे बनाए वृत्त की परिधि से बाहर

    इस वृहत्तर दुनिया में अपने लिए एक कोने की तलाश में…

    स्रोत :
    • रचनाकार : पल्लवी विनोद
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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