मुझे आकर्षित करती हैं
ताँबई आभा लिए वो तमाम स्त्रियाँ
जिनकी त्वचा आग और धुएँ से झुलसी हुई है
जो कलफ़ लगी सूती साड़ी, खद्दर के मोटे कुर्ते
या गोल गले की टी-शर्ट में सिमटी हुई हैं
इनका सौंदर्य आयातित बाज़ार वाद पर बीस पड़ता है
आँखों की चमक के आगे फीके पड़ जाते हैं समस्त फ़िल्टर
अग्नि का ताप लिए ये औरतें, परिस्थितियों को धता बता
संभावनाओं के तालाब खोदती हैं
इनकी खुरदुरी उँगलियों में जड़ा हुआ है
मधुमास के दिनों का दग्ध चुंबन
और माथे की पर खिंची हुई है
सलाखों के भीतर क़ैद की छटपटाहट
इन्होंने परास्त की हैं
रूढ़ियों, शील, स्त्रियोचित आचरण और
बंधनों की चतुरंगिणी सेनाएँ
विजय से उन्मत्त होकर जब इनकी ही माँएँ
बजाना चाहती हैं दुंदुभी
ये आगे बढ़कर उन्हें रोक देती हैं
नहीं चाहिए इन्हें प्रसिद्धि
प्रकृति की बेटियाँ, प्रकृति के सबसे क़रीब हैं
धान रोपती, धान कूटती, भात पकाती लड़कियाँ
जानती हैं पेट की भूख सबसे बड़ी भूख है
और भूख लिंग भेद नहीं करती
इन्होंने शुरू कर दिया है
बेटियों को बेटों के बग़ल में परोसना
हर निवाले को समानुपात में विभक्त करती ये औरतें
ख़ुद को भी भूखा नहीं रखतीं
उस पिंजड़े का दरवाज़ा तोड़ दिया है
जिसके भीतर रखे थे सुनहरे उपहार
काली मोतियों की मालाएँ उतार
एक पैर में काला धागा बाँधती ये औरतें
जानती हैं सूरत से ज़्यादा ज़रूरी हैं पैर
इनके सहारे ही निकल जाएँगी
तुम्हारे बनाए वृत्त की परिधि से बाहर
इस वृहत्तर दुनिया में अपने लिए एक कोने की तलाश में…
- रचनाकार : पल्लवी विनोद
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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