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उषाभिलास

ushabhilas

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

प्रतिभा शतपथी

प्रतिभा शतपथी

उषाभिलास

प्रतिभा शतपथी

और अधिकप्रतिभा शतपथी

    एक

    अवगुंठन खिल रहा किसका?

    झलक उठता रक्तिम गंडस्थल।

    किसका ?

    साँसों में इधर-उधर

    गंधविद भ्रमर दल ?

    मुरझाया नक्षत्र

    श्लथ केश की जड़ से झरता

    हर सिंगार अथवा

    आश्चर्य अप्सरा का।

    ईश्वर की कल्पना में

    एकाग्र चारुकला में मूर्त अप्सरा,

    क्षितिज से पसर आता उसका

    कपूर से बना हाथ

    कृतांजलि से बूँद-बूँद पुष्पमधु

    बिखरा महाशून्य में

    पृथ्वी पर

    आकाश में दौड़ते जा रहे पल

    चंचल, अधीर, जब देख लो

    उसका चेहरा भोर में।

    दो

    अप्सरा, तू मेरा द्वितीय अस्तित्व तो नहीं?

    जिसे स्वीकार कर

    आँखों देखी दुनिया के प्राणी

    अदृश्य हो जाते सारे,

    खुल जाता अकाल अँधेरा

    भोर के पहर में

    घिरे कोहरे के बीच

    बहुत अकेलापन लगे।

    चौंककर झर जाए देह का भ्रमपटल,

    हृदय के अंदर

    अनावश्यक स्वयं को मानकर

    सोया बूँद-भर आलोक

    अचानक हो उठता सचल

    क्रमशः बढ़ जाता

    उसमें और भी अंदर से

    बढ़ता आलोक का स्तंभ

    उसमें से कोई

    उड़ते-उड़ते ऊर्ध्व को चला जाता

    सुनिर्णीत तेरी दिशा में मिल जाता,

    मेरा ही अंश तो नहीं वह?

    उसकी उज्ज्वल आभा

    प्रकाशित करती रहती

    स्थावर, जंगम सारे चराचर

    बेशुमार पक्षियों का कलरव पूर्ण करता

    आकाश को, दिग-दिगंत गुम जाते।

    कितना गंभीर, आत्मीय स्तर

    टकराता मेरे कानों में,

    अभिजित यह पल,

    सच, सच, सच!!

    तीन

    क्या इतनी बेवकूफ़ हूँ

    जो बहक जाऊँ

    इस भोज-भाज में

    परित्यक्त खूँटे-से धरती पर थमे

    पाँव मेरे क्या कभी झूठे होंगे?

    झूठ होगा

    काल सूर्य का यह दर्प?

    सृष्टि का यह अहंकार?

    संक्षिप्त, विशेषत्वहीन घास के तार-सी

    मेरी अंगुलियाँ दोनों ऊर्ध्व उठा खड़े होना?

    झूठ होगा

    हाड़ पिंजर में लिपटे हुए

    कुंठित जगत मेरा,

    उस सारे जगत में

    टूटे-फूटे सुनहले इंद्रधनु,

    टुकड़े-टुकड़े सुनहले तीर,

    झूठ होगा,

    भयशोक में विवर्ण मेरा चेहरा

    क्रोध में,

    घृणा में,

    जर्जर यह अंधकार

    मेरे चारों ओर?

    चार

    अँधेरा उफनता रहा—रात भर

    झरता रहा

    ख़त्म होने आया पराग फूलों से

    यौवन से मधु

    सुबह केवल तुम

    स्वतंत्र यौवन,

    फूलों से सजी

    कोई दिग्वधू ?

    अप्सरा तेरे अपांग में चकित समय यहाँ।

    कोंपलें लाल छाता लिये आम पर

    तेरे अनिवार्य नख-चिह्न थे।

    तेरा उदास स्पर्श इतना नूतन

    कि समूची देह रोमांच में भर उठी

    अप्सरा,

    अप्सरा समय कब आएगा?

    असंलग्न स्वप्न के लिए रात ही होगी फिर

    सचमुच मैं,

    बन जाऊँगी

    चिरदिनों की विकच

    परिचित एक भोर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओडिया कविता-यात्रा (पृष्ठ 210)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : प्रतिभा शतपथी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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