एक
मेरे हाथ में जुए की एक और बाज़ी की तरह, ऊषे,
तुम फिर आ गई हो !
हारी हुई बाज़ियों ने जब मुझे परेशान कर रखा था,
मुझे तबाह कर रखा था,
खाए डाल रही थीं मुझे,
उस वक़्त मेरे हाथ में एक बार और ताश के पत्तों की तरह, ऊषे,
तुम फिर आ गई हो !
आसमान के कोने में कढ़ चारों ओर फैल रहा है
बीती हुई रात के अंधकार में सना,
आती हुई दुपहर के भयों से छना,
तेरा आशामय प्रकाश।
ऊषे, ओ ऊषे!
किसने कहा कि तुम आयु का एक-एक दिन ह्रास करती हो ?
चोर तो साँझ है।
माँ की गोद से एक बार और उतार कर,
कॉलेज से फर्स्ट क्लास की डिग्री एक बार और हाथ में थमा,
फिर से जीने के लिए देती हो एक नई ज़िंदगी तुम तो!
स्वप्नों से थरथराती होती है मेरी रात।
हाथों से फिसलती दुपहर, कोने में दुबकती साँझ बिसूरती
कि आज फिर न आया हाथ दिन।
पर तुम आज तक मुझे कभी भी कटु नहीं हुईं।
दिवास्वप्नों-सी तुम निरंतर मधुर हो,
ओ सुनहली!
दो
जिसके स्वागत में नभ ने बरसा दी हैं जोन्हियाँ सभी,
और बड़ ने छाँह बिछा डाली है,
वह तू ऊषा, मेरी आँखों पर तेरा स्वागत है।
पत्तों की श्यामता के द्वीप डुबोते हुए हुस्न-हिना के
गंध-ज्वार-सी
हरित-श्वेत जो उदय हुई है,
वह तू ऊषा, मेरी आँखों पर तेरा स्वागत है।
एक वस्त्र चंपई रेशमी, उँगली में नग-भर पहने
स्नानालय की धरे सिटकनी—
वह तू ऊषा, मेरी आँखों पर तेरा स्वागत है।
क्षण-भर को दिख गई दूसरे घर में जा छिपने के पहले
अपने पति से भी शरमा कर
वह तू ऊषा, मेरी आँखों पर तेरा स्वागत है।
तीन
मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है।
वह अप्सरा है; उसका कभी ब्याह नहीं हुआ,
उसके प्राण घर-द्वार की बलिष्ठ वल्गा से निर्बंध हैं।
मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है।
सुबह के प्रकाश में वह अलबेली अरुणाभिसारिका
खाली पैरों चुपके आकर
मेरी खिड़की से झाँकने लगी।
मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है।
शत-शत सोतों में बह रहा था तकिये से उतर कर मेरी
पत्नी के केशों का अंधकार,
उसने सींखचों में हाथ डाल कर उन केशों को ही पकड़ लिया!
मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है।
जब मेरी पत्नी की नींद उचटने लगी तो हरिणी-सी भाग भी खड़ी हुई।
पुकार कर कहती गई, कल फिर आऊँगी। मैं ठहर पड़ा।
मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है।
चार
प्रकाश और छाया की संधि पर
श्याम-शुभ्र क्षीर-सरोवर के तीर पर मैंने ऊषा-देवता
को देखा था।
श्वेताभ-नील सौगंधिक पर वही खड़ी थी,
धवल-सुनहली शेफालिका के पहने गहने।
सफ़ेद-हरे अंगूरी वस्त्र ने
पतले कुहासे-सा उसे आधा ही ढँक रखा था।
वह हँसी
मानो गुलाबी बादलों को भेद कर वासंती चाँदनी
चमक उठी हो,
और सरोवर में कूद गई
अपनी डूबती बाईं अँगुलियों में फिर आने का इशारा लिए।
पाँच
अरे रे, किरणों की कोसी ने अपने कगारे ढहा दिए हैं,
दूर तक सर्वत्र वेग से टूटता पानी उमड़ता-घुमड़ता
चारों ओर फैल रहा है।
अंत तक स्थिर बलता वह एक अकेला शुक्रतारा दीप
दो अंगुल, चार अंगुल, दस अंगुल रोशनी में धीरे-धीरे
डूब जाता है।
छह
स्वस्ति, स्वस्ति तेरा आना!
ओ रोशनी की बेटी, आसमान की हरिणी, किरणों
के केश वाली !
सपनों के आँचल वाली! देवताओं की ईर्ष्या, मनुष्यों की आशा,
राक्षसों की विपत्ति! अमीरों की अनदेखी, गरीबों की मसीहा!
विद्युत-वर्णा! वीणावादिनी शक्तिदा! सुप्रभा!
स्वस्ति, स्वस्ति तेरा आना!
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.