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टूटती-बनती गृहस्थी : किरकिरी मगर किनारा-कशी नहीं

tutti banti grihasthi ha kirakiri magar kinara kashi nahin

अर्पण कुमार

अर्पण कुमार

टूटती-बनती गृहस्थी : किरकिरी मगर किनारा-कशी नहीं

अर्पण कुमार

और अधिकअर्पण कुमार

     

    एक 

    मैंने उसे अपशब्द कहे 
    उसने मुझे 
    प्रतीक्षा थी रविवार की
    और लालसा 
    कि दोनों मिलकर 
    मदनोत्सव मनाएँगे 
    ख़ूब मज़े करेंगे 
    नहीं हुआ कुछ भी वैसा उस दिन 
    मज़ेदार नहीं, बदमज़ा रहा रविवार     

    हुए झगड़े, हुई कहासुनी 
    वाद-विवाद में रौंदे गए
    कामना-पुष्पों से सजे सुवासित पथ  

    हम दोनों ने
    लताड़े एक-दूसरे को
    हम तर्कशील थे 
    गए समस्या की जड़ में  
    हम बिगड़े अगुआ पर   
    एक-दूसरे के परिजनों पर  
    हमने मिलकर वे सभी हथकंडे अपनाए 
    जो युद्धरत दो देश अपनाते हैं 

    एक-दूसरे को गरियाते हुए  
    हम दरअसल अपशब्द कह रहे थे  
    उस प्रतीक्षा को 
    जो हमारे लिए 
    अवकाश के दिन 
    कुछ ख़ुशियाँ 
    प्लान कर रही थी। 

    दो 

    उनके बीच नहीं हुई थी  
    गाली-गलौज 
    पहली बार
    नहीं हुई थी हाथापाई

    यह पहली बार नहीं हुआ था 
    कि बिगड़ा हो 
    उनके व्यवहारों का संतुलन 
    और मुहल्ले के अंतिम छोर तक गई हो 
    घर की काँय-काँय

    नहीं पढ़ा गया था आख्यान पहली बार
    जो तुनकमिज़ाजी और उलाहनों के 
    कई-कई सर्गों में निबद्ध था 
    पहली बार नहीं चटके थे 
    उनके कानों के पर्दे 

    यह पहली बार 
    हाँ, यह पहली बार
    नहीं हुआ था 
    कि इन सबके बावजूद दोनों 
    किसी तरह क़ायम रख सके संतुलन, 
    बचा ली दोनों ने अपनी गृहस्थी  

    अपने बच्चों की ख़ातिर वे कुछ भी सह सकते हैं- 
    कहते पाए गए दोनों।       

    तीन 

    गाली का प्रत्युत्तर 
    गाली से दे रहा था उसका क्रोध
    कल रात 
    चूम रहा था जिन्हें 
    थूक से सने दिखते 
    उसके वही होंठ
    आज सुबह आक्रामक थे 
    अजनबी-से दृश्यमान 
    इस नए रूप में भ्रामक थे  

    बखेड़े के बटखड़े को 
    उलट-पलटकर देखता रहा देर तक 
    झगड़े की जड़ सरल है या कि जटिल 
    वह सोद्देश्य है या कि है 
    निरुद्देश्यता का कोई उल्कापात
    उधेड़बुन का कोई घटाटोप 
    बना रहा देर तक  
    तीव्र तो मंथर गति से 
    मंथन चलता रहा देर तक  
    भीतर से ही आई कोई आवाज़  
    भरी दुपहरी की धूप से 
    अधिक तीक्ष्ण थी जो 
    मुझे आईना दिखला रही थी-   
    जब तुम कम नहीं हो  
    झगड़े में 
    तब वह भी कम क्योंकर हो 
    किसी रगड़े में! 

    उलीचता रहा देर तक 
    भीतर भरी पौरुष-ग्रंथियों को 
    शाम होते-होते 
    हम फिर अंतरंग हुए 
    अजनबियत कपूर की तरह 
    उड़ चुकी थी कब की!

    हमारे गिले-शिकवे 
    क्षणभंगुर हैं 
    संभवतः हमारी गृहस्थी नहीं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अर्पण कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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